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श्री | पुण हुँति लेवकडा ॥१८८॥ एमेव बयर रायण वारंग कविट्र अंबजवीरे। टिंबरुय चारुकयले बिजउरे नालिएरे य
इन्द्रियजययशोदेवीये|2|॥१८९।। नवरं इह परिभोगो निम्विइयाणंपि कारणावक्खो।उकोसगदव्याण तओ विसेसेण विन्नेओ॥१९०॥आव
निर्विकृतिप्रत्या- ननिविगइयस्स असहुणो जुज्जए परीभोगो । इंदियजयबुद्धीए विगईचायम्मि नो जुत्तो ॥१९१॥ जो पुण विगई-18के न विकख्यान
| चायं काऊणं खाइ निद्धमहुराइ । उकोसगदम्वाणं तुच्छ फलो तस्स सो नेओ ॥१९२॥ दीसंति य केइ इहं पच्चक्खा-है तिगतानि स्वरूपे
एवि मंदधम्माणो । कारणियं पडिसेवं अकारणेणावि कुणमाणा ॥ १९३ ॥ तिलमोयगतिलवहिं वरिसोलगनालि| केरखंडाई । अइबहलघोलखीरं घयपप्पुयवंजणाइं च ॥ १९४ ॥ घयबुहुमंडगाई दहिदुद्धकरंवपेयमाईयं । झल्लरिचूरिमपमुहं अकारणे केइ भुंजंति ॥ १९५ ।। न य तंपि इह पमाणं जहुत्तकाराण आगमन्नूणं । जरजम्ममरणभीसणभवन्नवुव्विग्गचित्ताणं ॥१९६॥ मोत्तुं जिणाणमाणं जियाण बहुदुहदवग्गितवियाणं । न हु अन्नो | पडियारो कोई इहं भववणे जेण ॥ १९७ ॥ विगई परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिन्ने य । सुटुवि चित्तजयपरो कहं अकज्जे न वहिहिह ॥१९८ ॥ दावानल मझगओकोतवसम्मट्टयाए जलमाई। संतेविन सेविज्जा? | मोहानलदीविए उवमा ॥ १९९ ॥ तथा-विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ ॥२००॥ विकृति-चेतोविकारमाश्रित्य विगतिभीत:-कुगतित्रस्तो विकृतिगत-क्षीरादिविकृतिजातं यो भुङ्क्ते साधु
॥१७॥ | विकृति:-क्षीरादिका विकृतिस्वभावा-चेतोविकारकरणशीला अतो विकृतिः-श्रीरादिका विगति-कुगतिं बलानयतीति । - इय दोसकरिं नाउं वयंति धीरा इमं जहासत्तिं । महुमज्जमक्खणाई मंसं च विसेसओ निच्चं ॥२०१॥