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श्रीयशो
देवीये
प्रत्या ख्यान स्वरूपे
॥१४॥
वासदेणं अत्यो पढमगमेणं भणेयव्वो ॥ १५८ ॥-चरिमो अंतिमभागो दिवसस्स भवस्स चेव नायव्यो। तब्वि-चरमप्रत्यासयं इह भण्णइ पच्चक्खाणंपि चरिमंति ॥ १५९ ॥ दुविहेवि तम्मि चउरो आगारा हुंति नवरि भवचरिमं । ख्यानानि सागारमणागारं पढमदुर्ग तत्थऽणागारे ॥ १६० ।। तणवत्थंगुलिपमुहे मुहं पविढे हवेज्ज मा भंगो। तो तत्थवि आगारा न उणो आहारबुद्धीए ।। १६१॥
सूत्राणि चामूनि-दिवसचरिमं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं असणं०४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ॥ भवचरिमं पच्चक्खाइ तिविहंपि चउन्विहंपि वा आहारं असणं० ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारणं महत्तरागारणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसरद ॥ निरागारे तु-भवचरिमं पच्चक्खाइ तिविहंपि चउव्विहंपि वा आहारं असणं० ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहमागारेणं वोसिरह ॥
एक्कासणगेवि कए दिणचरिमं सफलमेव जेण तयं । थोवागारं इयरं बहुआगारं विणिहिटुं॥१६२॥ एकासणाइ एत्तो देवसियं चेव होइ नायव्वं । निसिविरई जा जीवं तिविहंतिविहेण जेण कया।। १६३ ।। एत्तोत्ति बह्वाकारत्वतः। गिहिणो पडुच्च दिवसं रूढिवसाओ भणंतऽहोरत्तं । तो तेसिं निसिभोयणविरयाणवि गुणकरं चेव ॥१६४ ॥
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