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________________ संबेगरंगसाला | एकत्वभावनारवरूपम् । ॥६६४॥ पुव्वभवप्पडिबद्ध', गाहं सिकूखविय पेसिया तस्स । पासम्मि बोहणत्थं, तेहिं गतूण पढिया य ॥८६४५।। "तावस ! किमिणा मोणव्वएण, पडिवज जाणि धम्मं । मरिऊण सूयरोरग, जाओ पुत्तस्स पुत्तो ति" ॥८६४६।। अह सो नियभववित्तं, सोऊणं तकखणेण पडिबुद्धो । सूरिसमीवे गंतुं, पडिवन्नो तित्थयरधम्मं ॥८६४७॥ अलमत्थ पसंगेणं, संसारे तिकखदुक्खलकखाई । पत्ताई पाविही तह, जीवो धम्म जइ न काही ॥८६४८॥ इय खवग! महादुहहेउ-भूयभवभावभावणुज्जुत्तो। भवसु तहा जह पत्थुय-मऽत्थं लीलाए साहेसि [संसारो]॥८६४९॥ जेणं चिय संसारो, एस अणिच्चत्तणेण वत्थूण । अणुवलभणिजसरणी, तेणेव जियाण एगतं ॥८६५०॥ एगत्तभावणं ता, पइ मयपवड्डमाणसंवेगो। भावसु छिन्नममत्तो, तत्तं हिययम्मि काऊण . ॥८६५१॥ एगो आया संजोगियं तु, सेसं इमस्स पाएणे । दुक्खनिमित्तं सव्वं, मोतुं मज्झत्थभावं तु ॥८६५२॥ जं एको चिय जीवो, सुहं दुहं वा भवम्मि अणुभवइ । न हु तस्स को विबीओ, सो विन अन्नस्स कस्सावि ।।८६५३।। एगो च्चिय सोयताण, चेव मज्झाओ जाइ बंधूणं । न य तं अणुगच्छंती, पियपुत्तकलत्तमित्तजणा ॥८६५४।। 'एक्को करेइ कम्म, एक्को च्चिय तफलं पि भुजेइ । जायइ मरइ य एको, एक्को हु भवंऽतरं सरइ ॥८६५५॥ को केण समं जायइ, को केण समं च परभवं जाइ । को कस्स कि करेइ, कस्स वि को कि च फेडेइ ।।८६५६।। अणुसोयइ अण्णजणं, अन्नभवऽन्तरगयं तु बालजणो। न य सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवे एकं ॥८६५७।। संतं पि समत्थपयत्थ-वित्थरं बज्झमुज्झिउ' झत्ति । परलोगा इहलोगे, आगच्छइ गच्छइ एको ॥८६५८।। ॥६६४॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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