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________________ संवेगरंगसाला अभ्यन्तरबाह्य-ग्रन्थयोः स्वरूपम् ग्रन्थार्जने कष्टानि च । ॥६२७॥ अन्भिन्तरबाहिरिए, सव्वे गंथे तुमं विवाहि । कयकारियअणुमईहिं, मणवइकाएहिं तत्थ इहं ॥८१४७।। मिच्छत्तं वेयतिगं, जाणसु हासाऽऽझ्याण छकं च। कोहाऽऽईण चउक, चोइस अन्भिन्तरा गंथा ॥८१४८॥ बाहिरगंथं खेत्तं, वत्थु धणधन्नकुप्परुष्पाणि । दुपयचउप्पयमऽपयं, सयणाऽऽसणमाऽऽइ जाणाहि ॥८१४९॥ जह कुडओ न सका, सोहेउ तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स न सक्का, कम्ममलं संगसहियस्स ॥८१५०॥ जइया रागा दोसा, गारवसनाउ तह उदयति । तइया गंथं घेत्तुं, लुद्धो बुद्धि कुणइ तत्तो ॥८१५१॥ तस्स निमित्तं मारइ, भणेइ अलियं करेइ चोरिक। सेवइ मेहुणमऽत्थं च, अपरिमाणं कुणइ जीवो ॥८१५२॥ सन्नागारवपेसुष्ण-कलहफरसाणि भंडणविवाया। के के न होंति अच्चत्थ-मऽत्थवामोहमृढस्स ॥८१५३॥ गंथो भयं नराणं, सहोयरा एलगच्छया जं ते । अन्नोऽन्नं मारेउ', अत्थनिमित्तं मइमकासी ८१५४॥ अत्थनिमित्तमऽभयं, जायं चोराणमेकमेकेहि। मज्जे मंसे य विसं, संजोय मारिया जं ते ॥८१५५॥ संगो महाभयं जं, विहेडिओ सावरण संतेण । पुत्तेण हिए अथम्मि, मुणिवई कुंचिएणाऽवि ॥८१५६।। अत्थनिमित्तं सीयं, उहं तण्हं छुहं च वासं च । दुस्सेज दुभत्तं च, सहइ वहई य गुरुभारं ॥८१५७॥ गायइ नच्चइ धावइ, कंपइ विलवेइ मलइ असुईपि । नीयं च कुणइ कम्मं, कुलम्मि जाओ वि गंथऽत्थी ।।८१५८॥ एवं चिट्ठतस्स वि, संसइओ होइ अत्यलाभो से। न य संचीयइ अत्थो, सुचिरेण वि मंदभग्गस्स ॥८१५९॥ || जइ पुण कहिंचि संचय-मुवेइ अत्थो तहावि से नत्थि । तित्ती पउरऽत्थेण वि, लाभे लोभो पवइढइ जं ॥८१६०॥ ॥६२७॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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