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________________ संवेगरंगसाला ॥२२॥ ॥२४६ ॥ ॥२४७॥ ॥२४८॥ ॥ २४९ ॥ ॥ २५० ॥ ॥२५१॥ खणलद्धचेयणा असि - वणम्मि सिसिरं ति जायसंकप्पा । वच्चसि तत्थ वि छिजसि, पयंडतरुपत्तखग्गेहिं ॥ २४५|| तत्तो पुणेो वि तेहि, रंगततरंगभंगुरावत्ते । वेयरणीनईनीरे, खिप्पसि पञ्ज लियजलणा मे तत्थ वि विज्जुड्डामर -महल्लकल्लोलपेलणव सेण । उब्बुड्डणबुड्डणचलण-खलणवाउलियसच्वंगो जरतरुदल व कवि हु, तीए किलेसेण पत्तपरतीरो । अच्छंतो असुरेहिं घेत्तूगं हरिसियंगेहिं जोत्तिजसि वसभो इव, रहम्मि अच्चन्तभूरिभारम्मि । विज्झसि पइकूखणं कुंत - तिकूखधाराए आराए अह तत्थ परिस्सन्तो, जा गंतुं नेव सकसि कहिं पि । ता उग्गमोग्गरेहिं, चूरिजसि तं महाभाग ! अफालिजसि विडे, सिलायले भिजसे य कुन्तेहि । छिजसि करवत्तेहि, पीलिजसि चित्तजंतेसु जाविसिणियअंग - मंसखण्डाई जलणपक्काई । ताडिञ्जसि पुणरुत्तं, विचित्तदंड पहारे हिं असुर विउब्वियगरुयंग-पक्खिअइतिक्खनक्खचंचूहिं । पहणिञ्जसि करुणसरं, रुयमाणा उडूढकयबाह इ नरउब्भवदुहं, अणुभूयं जं तए नखरिंद ! । तं सव्यं परिकहिउ जयपहुणा च्चिय तरन्ति परं एवं सागरमेगं, निवसित्ता भीसणम्मि नरयम्मि । दुकूखाई असंखाई, विसहिय तत्तो मओ सन्तो तुममुववन्नो भरहे, नयरे रायग्गहम्मि रोरकुले । पुत्तत्तणेण तत्थ वि, अणेगरोगाउलसरीरो समयाणुरूवभोयण - रोगपडीयारसयणपरिहीणा । अच्चन्तं दीणमणो, भिक्खावित्तीय जीवन्तो तरुणत्तं संपत्तो, तत्थ वि अच्चन्तदुक्खिओ सन्तो । परिचितिउ पवत्तो, धी धी मह जी विअव्वस ॥ २५८॥ ॥२५२॥ ॥२५३॥ ।। २५४ || ॥२५५॥ ॥२५६॥ ॥२५७॥ दरिद्रपुत्रः ॥२२॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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