________________
अईदादि
संवेगरंगसाला
| षट्क
भक्तिद्वारं भक्तिमाहात्म्य
॥५८३॥
सम्मत्तजाणवतं. पावित्ता दुत्तरंपि भवजलहि। तिन्ना तरंति भविया, अचिरेण तहा तरिस्संति ॥७५६६॥ आराहणाकयमणो, मणोरहाणं पि दुल्लहं तम्हा । पावित्ता सम्मत्त, धीर! तुम मा पमाएज ॥७५६७॥ इहरा उ पमायपरस्स, पत्थुयाऽऽराहणा इमा तुज्झ । नाव ब्व भट्ठिपत्ता, तडत्ति विहडिस्सइ नूणं ॥७५६८॥ सम्मत्तणामधेयं, छटुं पडिदारमेवमऽक्खायं । अरिहाऽऽइछक्कभत्ती-विसयं अह सत्तमं भणिमो ॥७५६९॥ अरिहंत १ सिद्ध २ चेइय ३-आयरि ४ उज्झाय ५साहुणो६ त्ति इमं । छकं सिवपुरपयवी-सत्याहसमं मुणेऊण ॥७५७०॥ हे खवग! हरिसपयरिस-वसवियसियहिययसररुहस्संतो। भत्तीए धरसु सम्म, निम्विग्ध पत्थुययकए ॥७५७१।। एगा वि किर समत्था, जिणभत्ती दुग्गई णिवारेउ । दुलहाई लहावेउ', आसिद्धिपरंपरसुहाई ॥७५७२॥ कि पुण परमेसरसिद्ध-चेइयाऽऽयरियवायगाऽऽईसु । भत्ती न होज संसार-कंदनिकंदणसमत्था ॥७५७३॥ विजा वि ताण भत्तीए, सिद्धिमुवयाइ होइ फलदा य । कि पुण निव्वुइविजा, सिज्झिहिइ अभत्तिमंतस्स ।।७५७४।। तेसि आराहणनाय-गाण न करेज जो नरो भत्ति । विहलेइ संजमं सो, ऊसरमहिववियसालि व ॥७६७५।। बीएण विणा सस्सं, इच्छइ सो वासमऽभएण विणा । आराहणमीहइ जो, आराहगभत्तिविरहेण ॥७५७६॥ विहिववियस्स वि सस्सस्स, जह य निफावगं भवइ वासं । तह आराहगभत्ती, तवदंसणनाणचरणाणं ॥७५७७॥ एक्कक्कगोयरा वि हु, अरिहाऽऽसु सुहपरंपरं जणइ । भत्ती उ कीरमाणा, कणगरहनिवो इहं नायं ॥७५७८|| तहाहि
॥५८३॥