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________________ संवेगरंगसाला आगतपुरुषवचनम् ॥१४॥ नवरं एव ठिए वि हु, खामेसु नराहिवं विणयपणओ । जइ जीवियं समीहसि, अहवा सवडंमुहो होसु ॥१३९॥ मुंचसु भवणऽब्भन्तर-मुवदंससु पोरिस खणं एक । जावञ्जवि निवडइ नो, कयन्तदिट्ठि ब्व बाणाऽऽली ॥१४॥ इय जंपिऊण अच्चन्त-मच्छरुच्छाहभूरिसरंभा । जाव न ते पहरंति, वज्जरियं ताव तेण इमं ॥१४१॥ हहो बालिसरूवा! खरनहर विभिन्नकुंभिकुम्भस्स । किं कीरइ केसरिणा, कुविएण वि हरिणनिवहेण ॥१४२॥ किंवा उन्भडतंडविय-चंडमणिफारफणकडप्पेण । विहगाहिवस्स कीरइ, रूसिएण वि भुयगवग्गेण ॥१४३॥ ता मुयह विहलसंरंभ-निब्भरं पहरणफडाडोवं । सामत्थाणणुरूवो हि, विक्कमो होइ मरणाय ॥१४४॥ जं च नियसामिभञ्ज, कामिजंतं पलोइउं तुम्मे । असमंजसं पयंपह, एयं पि विमूढयाए फल ॥१४५॥ नियसामत्थेण जओ, तग्गिहिणीए मए पवनाए । सामित्तमवक्तं, दूरे च्चिय तुम्ह नरवइणा ॥१४६॥ एवं च उववइत्तण-दोसो वि हु मज्झ विजइ न को वि । तुम्हारिसाण वि पुरो, एवं इह आवसंतस्स ॥१४७॥ अह बाढममरिसा भे, को वारइ मम तणुम्मि पहरेह । किंतु न सा एस जणा, सत्थगणो पक्कमति जत्थ ॥१४८॥ इय जंपियावसाणे, उग्गीरियपहरणा ददं कुविया । ते नावडंति जा ताव, थंमिया तेण पुरिसेण ॥१४९॥ अह वजलेवघडिय ब्व, पत्थरुकीरिय व्व सब्वे वि । जाया निच्चलतणुणा, सो पुण कीलित्तु खणमेग ॥१५०॥ कणगवई १पाणीए, गहिऊणं पट्ठिओ अखुद्धमणो । मुणितो य इमो सव्वा. वृत्तंतो भृमिनाहेण ॥१५॥ १ यद्यपि 'पाणि मि' इति प्रयोगो भवेत्, तथापि आपत्वात् स्त्रीलिङ्गे सप्तमी-एकवचनम् । ॥१४॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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