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________________ संवेगरंगसाला परपरिवादपापस्थानस्वरूपम् । ॥४९॥ जह जह परपरिवाय, करेइ तह तह लहुत्तणमुवेइ । जह जह तमुवेइ जणे, तह तह जायइ दढम पुजो ॥६३८४॥ जह जह परपरिवाओ, किजई तह तह गुणा पणस्संति । जह जह ताण पणासो, तह तह दोसाण संकमणं ॥६३८५।। जह जह तस्संकमणं, तह तह वयणिजभायणं हवइ । एवमऽकल्लाणाणं, परपरिवाओ पढमठाणं ॥६३८६।। परपरिवाएणं सं-घडंति दोसा अहुतया वि नरे। हुता पुण बहुबहुतर-बहुतमघणनिबिडया होति ॥६३८७।। परपरिवायं मच्छर-अत्तुक्करिसेहि जो नरो कुणइ । जम्मंऽतरेसु वि चिरं, सो भमइ निहीणजोणीसु ॥६३८८।। गुणस्यणहारणं दोस-कारणं जाणिऊण न करें'ति । धन्ना परपरिवायं, परमगुरूहि वि जओ भणियं ॥६३८९।। परपखिायं गिण्हइ, अट्ठमयविरिल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुखिओ निच्च ॥६३९०॥ विग्गहविवायरुइणो, कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स । नऽस्थि किर देवलोए वि, देवसमिईसु अवगासो ॥६३९१।। जइ ता जणसंववहार-वज्जियमकन्जमाऽऽयरइ अन्नो। जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स बसणेण सो दुहिओ॥६३९२॥ सुट्ठ वि उजममाणं, पंचेव करेंति रित्तयं समणं । अप्पथुई परनिदा, जिब्भोवत्था कसाया य ॥६३९३।। परपरिवायमई उ, दूसइ वयणेहि जेहिं जेहि परं । ते ते पावइ दोसे, परपरिवाई इय अपेच्छो ॥६३९४|| परपरिवायपसत्तो, सत्तो दोसे परस्स जपतो। ते चिय भवंऽतरगओ-ऽणताणते सयं लहइ ॥६३९५॥ एवं परपरिखाओ, किर्जतो परमदारुणविवाओ। बसणसयसन्निवाओ, समत्थगुणकरिसणकुवाओ ॥६३९६।। सुहगिरिखञ्जनिवाओ, न देइ गंतु' कहि पि हु भवाओ । इह सव्वदुहसमवाओ, भवंतरे दोग्गइनिवाओ॥६३९७॥ सं.रं. ४२ ब ६३९६॥ ॥१९॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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