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________________ संवेगरंगसाला सुबन्धुना नृपस्य कर्णविपकरणे चाणक्येन वाससमुद्गकस्य करणम् । ॥४९॥ जिणधम्मनिरयचित्तो, उप्पत्तियपमुहबुद्धिसंपन्नो। सासणपभावणऽभु-जओ य सो गमइ दियहाई ॥६३४२॥ पुव्वुच्छोइयनिवनंद-मंतिणा एगया य तच्छिदं । पावित्ता नरवइणो, सुबंधुनामेण भणियमिणं ॥६३४३॥ देव ! न जइ वि हु तुब्भे, पसायसवियासचखुणा वि ममं । पेच्छह तहा वि तुम्भ, हियमेवऽम्हेहिं वत्तव्वं ॥६३४४॥ तुब्भं जणणी चाणक-मंतिणा फालिऊण फुडमुयरं । पंचत्तं उवणीया, ता मे एत्तो वि को वेरी ॥६३४५।। एवं सोचा कुविएण, राइणा पुच्छिया नियगधावी । तीए वि तहा कहियं, मूलाउ न कारणं सिडें ॥६३४६॥ पत्थावे चाणको, समागओ भूवई वि तं दट्ठ। भालयलरइयमिउडी, झडित्ति विपरंमुहो जाओ ॥६३४७।। अहह ! कहं गयजीओ त्ति, परिभवं मह करेइ एस निवो। परिभाविऊण एवं, चाणको नियगिहम्मि गओ॥६३४८॥ दाऊण गेहसारं, पुत्तपोत्ताऽऽइसयणवग्गस्स । निउणमईए विभावइ, मह पयसंपत्तिवंछाए ॥६३४९।। केण वि पिसुणेण इमो, मन्ने राया पकोविओ एवं । ता तह करेमि जह सो, दुक्खामिहओ चिरं जियइ ॥६३५०॥ ता पवरगंधबंधुर-जुत्तिपओगेण साहिया वासा । खित्ता समुग्गयम्मि, लिहियं भुजम्मि तह एयं ॥६३५१।। जो एए वरवासे, जिघित्ता इंदियाण अणुकूले । विसए निसेवइस्सइ, सो वच्चिस्सइ जमघरम्मि ॥६३५२॥ वरवत्थाऽऽभरणविलेव-णाई तूलीउ दिव्यमल्लाई । हाणं सिंगारे वि हु, जो काही सो वि लहु मरिही॥६३५३॥ इय वाससरूवपरूव-णापरं भुजयं पि वासंतो। पक्खिविऊण समुग्गो, ठविओ मंजूसमझम्मि ॥६३५४॥ सा वि हु पवरोवरए, जडिउ पउराहिं किलियाहिं दढं । पम्मुक्को तालित्ता, तस्स कवाडाई निबिडाई ॥६३५५॥ ॥४९०॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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