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संधेगरंगसाला
परिग्रहस्वरूपम् ।
॥४५४॥
अवराडगो वराडग-मह पत्तवराडगो पुण वराओ। अहिलसइ रूवगं तंपि, पाविउ' ईहए दम्म पत्तो वि तं तदेगु-त्तराए वुड्ढीए जाव दम्मसयं । तं पत्तो य सहस्सं, सहस्सव कखए लकूर्ख ॥५८७५॥ लकखबई पुण कोडिं, कोडिबई पुण समीहए रज। रजवई चक्कित्तं, चक्की पुण महइ देवत्तं ॥५८७६॥ तं पि कहंपि हु पत्तो, पावो ईहइ पुरंदरत्तं पि। तम्मि वि पत्ते इच्छा, दीहट्टा वट्टए चेव ॥५८७७॥ उवरि पवित्थरइ दढ', अणुकर्म मल्लगस्स घडणव्व । इच्छा जस्स स सुगई, अवहत्थिय पत्थइ कुगई ॥५८७८॥ बहुसो वि मिजमाणो, न आढओ कहवि मूडओ होइ । इय जो धणलवभागी, सो कि कोडीसरो होइ ।।५८७९॥ जं पुव्वकम्मनिम्मिय-मज्जत्तओ लभइ तत्तियं चेव । दोणघणे वि य बुट्ठ, चिट्ठइ न जलं गिरिसिरम्मि ।।५८८०॥ जाकिर जहन्नपुनो, समाहियमीहइ धणं धणिय वेट्ठो। गयणंगणं गहे, सो नियहत्थेण पत्थेइ ॥५८८१।। जइ लब्भइ निब्भग्गेहि, भूयले एत्थ पत्थियपयत्यो। रजाऽऽई ता न दुही, दीसेज कयावि कोवि कहि ॥५८८२।। मणिकणगरयणपुन्न, लोयं पि हु पाउणेज जइ कह वि। तह वि य अछिन्नवंछो, ही ! अकयत्थो च्चिय वराओ॥५८८३॥ पन्नेहि सन्नो विह, अत्थे पत्थेइ जो विमूढऽप्पा। एमेव सो विणस्सइ, असमत्तमणोरहो चेव ॥५८८४॥ पवणेणं पूरेउ', न सकणिजो जोत्थ कोत्थलओ । इय अत्थेण न सको, कहिं पि अप्पा वि पूरेउ ॥५८८५॥ इच्छावोच्छेयकए, संतोसो चेव ता वरं विहिओ। संतोसिणो हि सोक्ख', दुक्खमऽसंतोसिणो धणियं ॥५८८६॥
१ दीर्घत्वात् ।