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________________ संवेगरंगसाला गीतार्थव्यवहारवतोः स्वरूपम् । ॥३६२।। उबवेज्ज व सहसा, निग्गच्छेज्ज व करेज उडाह। गच्छेज्ज व मिच्छत्तं, मरेज असमाहिमरणेण ॥४६४८॥ एवं चइच्छासंपाडणओ, सरीरपरिकम्मकरणओ तह य । अन्नेहि व उवाएहि, दव्वक्खेत्ताऽऽइअणुरूवं ॥४६४९॥ परिजागइ गीयत्थो, सुयविहिणा कारणं समाहीए । पनवणं च तदुचियं, दिप्पइ जह से सुझाणऽग्गी ॥४६५०॥ मुणइ य फायदव्यं, उवकप्पे तहा १उदिन्नाणं । जाणइ पडियारं वाय-पित्तसिंभाण गीयत्थो ॥४६५१।। सम्म उबायपुब्ब', उस्सग्गऽववायजाणओ सो हु। खमगस्स पयलियं पि हु, चित्तं विहिणा पसामें तो ॥४६५२।। सम्मं समाहिकरणाणि, कुणइ तुट्ट' च कहवि कम्मवसा । संघेइ पुण समाहि, वारेइ असंवुडगिरं च ॥४६५३॥ जिणवयणसुइपभावा, पावियपसमो पणट्ठमोहतमो । गयपरितोसपओसो, विरागरोसो सुहं झाइ ॥४६५४॥ निम्महिय मोहजोह, समच्छरं रागरायमुरिउ । चउरंगबलेण तओ, भुजइ निव्वाणरज्जसुह ॥४६५५॥ गीयत्थपायमूले, होति गुणा एवमाऽऽइया बहवे । न हु होइ संकिलेसो, जायइ असमा समाही य ॥४६५६।। पंचविह ववहारं, जो जाणइ तनओ सवित्थारं । बहुसो य दिट्ठपट्ठा-बओ य ववहारवं नाम ॥४६५७॥ आणासुयागमधारणे य, जीए य होति ववहारा । एएसि सवित्थारा, परूवणा सुत्तनिद्दिवा ॥४६५८|| दव्वं खेतं कालं, भाव' करणपरिणाममुच्छाह । संघयणं परियाय, आगमपुरिसं च विन्नाय ॥४६५९।। उदिन्नाण' = उदीर्णानाम् = क्षुब्धानामित्यर्थः । ॥३६२॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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