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________________ संवेगरंगसाला आचारवदादीनां स्वरूपम् । ॥३६१॥ आयार पंचविहं, चरइ चरावेइ जो निरइयारं। उवदंसइ य जहुत्तं, एसो आयारव' नाम ॥४६३६॥ दसविहठियकप्पम्मि, आचेलकाऽऽइए य जो निरओ। आयारवं स भन्नइ, पवयणमायासु उवउत्तो ॥४६३७॥ आयारत्यो दोसे, १पयहिय खमगं गुणेसु ठावेइ । आयारत्थो तम्हा, निज्जवगो होइ आयरियो ॥४६३८॥ चोदसदसनवपुव्वी, महामई सायरो व्व गभीरो। कप्पववहारधारो, भन्नइ आहारव नाम ॥४६३९।। नासेज्ज अगीयत्थो, चउरंग तस्स लोयसारंग। नट्ठम्मि य चउरंगे, न य सुलहं होइ चउरंग ॥४६४०॥ संसारसायरम्मि, अणंतभवतिकूखदुकुखसलिलम्मि। कह कहवि संसरतो, लहेइ जीवो मणुस्सत्तं ॥४६४१।। तम्मि हि दुल्लहलंभा, जिणवयणसुई य तीए पुण सद्धा । लद्धाए वि सद्धाए, सुदुल्लहो संजमो होइ ॥४६४२।। लद्धे य संजमे सो, संवेगकरि सुई अपावेतो। परिवडइ मरणकाले, अकयाऽऽहारम्स पासम्मि ॥४६४३।। किच आहारमओ जीवो, कहि वि आहारविरहिओ संतो। अट्टवसट्टो न रमइ, पसत्थतवसंजमाऽऽरामे ॥४६४४।। जिणवयणाऽमयसुइपाणएण, सरसाऽणुसद्विवयणेणं । तण्हाछुहाकिलंतो वि, होज्ज झाणम्मि आउत्तो ॥४६४५।। पढमेण व दोच्चेण व, चाहिज्जंतस्स तस्स खबगस्स । न कुणइ उवएसाऽऽई, समाहिकरणं अगीयत्थो ॥४६४६।। तेण पढमाऽऽइणा पुण, बाहिज्जंतो स कहवि कम्मवसा । कलुणं कालुणियं वा, जायणकिवणतणं कुजा ॥४६४७॥ संर, ३१ ॥३६१॥ -१ पयहिय = प्रहाय = त्यक्त्वा ।
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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