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________________ संवेगरंगसाला साधारणा अनुशास्तिः। ॥३५४॥ एयस्स य पयमूलं, मोत्तूण कयाइ कत्थइ तुम्ह । गंतु' जुत्तं न वरं, वयणेण इमस्स जइ कहवि ॥४५५०॥ एयाऽऽएसगएहि वि, कहिं चि पुन्नाऽऽगरो गुरू एस । भावेण न मोत्तव्यो, आणानिदेसनिरएहिं ॥४५५१॥ सामी भडेहिं अंधेहि, कड्ढओ पंथिएहि सत्थाहो । जह न विमुच्चइ एसो, तह तुब्भेहि विन मोत्तव्यो ॥४५५२।। एयम्मि सारणावार-णाऽऽइदाणे वि नेव कुवियव्वं । को हि सकन्नो कोवं, करेज हियकारिणि जणम्मि ॥४५५३॥ कडुयं पि कहवि भणिय, सप्पणयं तमऽमयं व मन्नंता। मा कुलबहु व्व तुम्हे, विणयं एयम्मि छड्डिहिह ॥४५५४॥ गुरुछंदाऽऽणंदलई, गुरुदिडिनिवायनियमियपयारा । गुरुरुइयविणयवेसा, कुलवहुसरिसा अओ सीसा ॥४५५५॥ भाविगुणाऽवेकखाए, कयगेणियरेण वा वि कोवेणं । आबद्धभीमभिउडी-भीसणयरभालबद्धो वि ॥४५५६।। होऊण कह वि तुम्हे, जइ वि इमो कन्जकारणविहन्नू । निब्भच्छइ निच्छुभइ य, तह वि इमो चेव सिगारो ॥४५५७।। अहं ति मन्नमाणा, सुनिउणतरविणयजोगओ तुम्हे । अमुमेव पसाएजह, एवं हिययम्मि भाता ॥४५५८|| सम्भावगम्भबहुविह-तहाविहप्पहुपसायणप्पवणे । पुणरुत्तमऽवंझफले, विविहोवाए नियमणम्मि ॥४५५९॥ चिंतिताणं धी जीविएण, १भव्वाण ताण जाण इहं । आकंपियपासजणं, खणं पि पहुणो न कुप्पंति ॥४५६०॥ तहाजह सागरम्मि मीणा, संखोभं सागरस्स असहंता। निति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति ॥४५६१।। १ मिच्चाण पादा० । ॥३५४॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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