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________________ संवेगरंगसाला संलेखनास्वरूपम् । ॥३१०॥ अहवा सव्वेसु पि हु, अरिहाऽऽइसु पुन्वणियदारेसु। परिकम्ममेव पगयं, तं च भवे भावसुद्धीए ॥३९८४॥ भावविसुद्धी उ हवेज, तिव्वरागाऽऽइवासणाविगमे। तधिगमो पुण मोहो-दयस्स विद्धसभावम्मि ॥३९८५।। तविद्ध सो पाएण, देहधाऊणमऽवचयवसेण । तदऽवचओ पुण जायइ, विचित्ततवसेवणाऽऽईहिं ॥३९८६॥ तवसेवणं पि संले-हणाऽणुग होइ पत्थुयऽत्थकर। ता एत्तो वित्थरओ, भन्नइ संलेहणादार ॥३९८७|| संलेहणा य एत्थं, तवकिरिया जिणवरेहि पन्नत्ता। जं तीए संलिहिजइ, देहकसायाऽऽइ नियमेण ॥३९८८॥ ओहेणं सव्वा चिय, तवकिरिया जइ वि एरिसी होइ । तह वि य इमा विसिट्ठा, घेप्पइ जा चरिमकालम्मि ॥३९८९।। एसा हि सुदीहरदुष्प-सज्झवाहिम्मि अब उवसग्गे। चारित्तधणविणासण-करम्मि वा कारणम्मि परे ॥३९९०।। सोइं दियाऽऽइविगलत्त-संभवे अहब तिकखदुम्भिकखे। कायव्या धीरेणं, समणेण सावएणं च ॥३९९१॥ जओपरिवालिऊषा विमल, सावगधम्म सुदीहर काल । आगमविहीए काउं, सम्मं सलेहणं अंते ॥३९९२।। आराहिउग्गकिरिया, इह आणंदाऽऽइणो महासत्ता। पत्ता कमेण परमं, कल्लाणपरं परमुयार ॥३९९३।। तह आदिकवाउ च्चिय, चिरं पि चरिऊण दुच्चरं चरणं । आजम्मं तं दित्त, तवं च तविउ महापुरिसा ॥३९९४।। अंते विसेससंले-हणाए सलिहियदव्वभावा य। काल का सुव्वंति, पुवरिसिणो वि सिद्धिगया ॥३९९५।। तित्थयरा वि हु तइलोक-तिलयभूया वि विबुहमहिया वि । अप्पडियनिम्मलनाण-किरणउजोवियजया वि ॥३९९६।। ॥३१०॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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