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संवेगरंगसाला
ताराचन्द्रस्य अच्युतदेवलोके गमनम्
॥१९३॥
बाहिरवित्तीए चिय, चिन्तन्तो रजरढवावारं । सच्चरिएसु पयट्ट, अणुमोयंतो य धम्मिजणं ॥२४६४॥ आराहणामिलासी, निम्मलपरिणामसंगओ सो य । मरिऊण अच्चुए दिव्य-देवरिद्धिं समणुपत्तो ॥२४६५।। कुरुचन्दो वि तहाविह-धम्मविहिवजिओ पमाई य । अट्टज्झाणोवगओ, मरिउ तिरिएसु उबवन्नो ॥२४६६।। तत्तो उव्वट्टित्ता, महाडवीए पुलिदगो जातो । सत्थेण समं समणे, वच्चते पेच्छिउँ तत्थ ॥२४६७।। एगंतनिलुक्केणं, तेणेरिसगा पुरा मया के वि । आसी दिट्ठ ति विचिन्ति-रेण सरिओ सपुन्वभवो ॥२४६८|| संभरिया य महागुण-मणिनिहिणो सगिहे वि धारिया मुणिणो। तेहिं पुणरुत्तदिन्ना, सरिया धम्मोवएसा वि ॥२४६९।। तो चिन्ति पवत्तो, महाणुभावेहि तेहिं तइयाऽहं । सासिजन्तो वि तहा, धम्मुखोगं न पडिवन्नो ॥२४७०।। जइ वि हु महाणुभावेण, राइणा ठाविया मह गिहम्मि । गुरुणो उवयारष्ट्ठा, उवयारो तह वि नो जातो ॥२४७१।। गुरुकम्मणो कहं मह, एत्तो होही सुधम्मसामग्गी । अहवा किमणेण विचिन्ति-एण एवं ठितो वि लहुं ॥२४७२।। काऊण अणसणं सास-णं च धरिउं मणम्मि जयगुरुगो । झायंतो ते चिय सूरि-णो वि साहेमि नियकजं ॥२४७३॥ इय निकलंकसम्मत्त-संगतो उज्झिऊण आहारं । कुरुचन्दो सोहम्मे, मरिउ देवत्तमऽणुपत्तों ॥२४७४।। एवं वसहिपयाणं, उवरोहकयं पि जणइ कल्लाणं । पाएण परभवम्मि वि, दंसियकुरुचन्दनाएणं ॥२४७५॥ ता सव्वसंगरहियाण, वियसमहियाण जयजियहियाणं । साहूण वसहिवियरण-परंमुहो कह बुहो होज ॥२४७६।।
पुलिन्द्रत्वेन . उत्पत्तिः मुनिदर्शनं पश्चात्तापः
अनशनेन ॥ सौधर्मप्राप्तिथ।
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