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________________ संवेगरंगसाला ॥ १५५॥ ।। १९६५ ।। ॥१९६६॥ ।।१९६७॥ || १९६८ ॥ ॥ १९६९ ॥ ॥१९७० ॥ एवं च तुज्झ न गिलाण - कञ्जविसया वि जायए चिन्ता । कालाऽणुरुवगुणिगोय - रं च न पमोयकरणं पि वच्छल्लथिरीकरणोव - वृहणाइ वि न चैव सव्वत्थ । अविगाणेणं चिन्तसि, साहिप्पाया जड़ कहं पि एवंविहं च कुग्गह- चकं छेत्तुं विवेयचकेण । सव्वोवाहिविसुद्ध सद्धम्मे कुणसु पडिबन्धं जड़ तुममिह पडिबन्धं, हुतं थेवंपि तान इयकालं । होज महदुक्खजालं कि न सुयमिमं तए चित्त ! एगदिवसं पि जीवो, पव्वजमुवागओ अन्नन्नमणो । जइ वि न पावड़ मोक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ अहवेगदिवसमिच्चाइ - धूलं माणं जओ मुहुत्ते वि । सन्नाणपरिणईए उ, फलमिठ्ठे होइ जमिहुत्तं जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण कहमिहरा मरुदेवी, पुव्वं अगुणा वि तक्खणा चैव । सिद्धा तुमं तु हे मण !, सुनाणपरिणइगुणविहीण ! कइया विरागरतं, कइयवि दोसेण कलुसियसरूवं । कइया वि मोहमूढं, कया वि कोहग्गिसंततं कइयावि माणथर्द्ध, कयाइ मायाए बाढमाऽऽविद्ध । कइया वि महालोहोय - हिम्मि सव्वंगनिम्मग्गं कइया वि. वेरमच्छर – रणरणयभयद्दरोद्दझाणगयं । कइया वि दव्वखेत्ताऽऽह - विसयचिन्ताभरकन्तं निच्च पि वावडं चिय, खरपवणपणुन्नधयवडो व्व तुमं । नाग्वत्थाणं थेवं पि, लहसि कइया वि परमत्थे इच्चाइ चित्त ! 'केत्तिय - मणुसासिञ्जसि तुमं सयं चैव । कुसलाकुसलविभागं, परिभावसु तह य निच्छयसु ।।१९७७॥৷ तत्तो कुसलपवित्ति, निच कुसलट्ठिएसु बहुमाणं । कुणसु अ कुसलाऽकुसलत्थ - चायमज्झत्थभावे य ॥ १९७८ ।। ।।१९७५ ।। ॥ १९७६॥ ।।१९७१ ।। ॥१९७२ ॥ ॥१९७३॥ ॥ १९७४ ॥ मनसः कुशलप्रवृत्तिकरणे उपदेशः । ॥ १५५॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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