SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवेगरंगसाला मनसः शिक्षा। ॥१५३॥ जइ सन्नाणतरंडं, अक्खण्डं छड्डुसे न कइया वि । हे हियय ! हीरसि न ता, अविवेयस रिप्पवाहेण ॥१९३७॥ जीवे सुपत्तभूए, चिट्ठति मोहतन्तुमयवट्टि । नेहं च निट्ठवितो, मिच्छत्ततमोविणासी य ॥१९३८॥ कालुस्सकजलं उन्व-मन्तओ जइ गिहस्स व तुहंऽतो। सन्नाणपईवो जलइ, चित्त ! ता कि न पजत्तं ॥१९३९॥ गुरुगिरितडसंभूयं, विसयविरागमज्झमुद्धरक्खधं । धम्मऽत्थिसउणरुद्धं च, परमतत्तोवएसतरूं ॥१९४०॥ होऊणमणुत्तालं, सणियं चित्त ! जइ समारुहिउ । गिन्हसि सन्नाणफलं, ता आसाएसि मुत्तिरसं ॥१९४१॥ रोगाण व कम्माण, विजासिद्धो व्व वियरइ सुगुरू । बज्झोवयारविमुहं, पसमणपरमोवएसं जं ॥१९४२॥ तं झायसु चित्त ! न केव-लं जओ अहिगयकखओ चेव । सयलकिलेसविमुक्कं, जायइ अजरामरत्तं पि ॥१९४३॥ हे चित्त ! पयत्तेणं, चिन्तसु तत्तं तुमं तयं किंचि। चिन्तियमेत्तेणे चिय, चिरं पि जेणासि सुनिवुत्तं ॥१९४४॥ धीमं विऊ सुरूवो, चाई सूरोऽहमेव इच्चाई । दप्पजरो ता तुह मण!, जा न निलीयसि परे तत्ते ॥१९४५।। अविवेयमिठमुल्लुंठिऊण, थंभ पि भंजिय दढ पि । पुत्तकलत्ताइसिणेह-निबिडनिगडाई तोडेउ ॥१९४६॥ रागाऽऽइबन्धणदुमे वि, दूरमुम्मूलिऊण धम्मवणे । हे चित्त ! चरसु हत्थी व, जं परं निव्वुई लहसि ॥१९४७।। सक्ख जिणिन्दभणियं, इमं ति एयं च गणहरेण पुणो। तस्सीसेण य एयं, चोदसदसपुग्विणा य इमं ॥१९४८॥ पत्तेयबुद्धपमुहेहि, भासियं पुवजिणवरेहि इमं । भणियं इच्चाई पर-पच्चायणवयणचिन्तणओ ॥१९४९।। हे चित्त ! खिञ्जसि चिय, सयं रसाऽणुभवसुन्नमेव तुमंदव्वि व्व दिव्वभोयण-बहुविहरसपयडणपरा वि॥१९५०॥ १. का २. एसिया दर्चा- SecretaIAL ॥१५३॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy