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संवेगरंगसाला
शुभध्यानस्य माहात्म्यम्।
॥१५२।।
विसएहिता खंचिय, धरिओ सारे न इंदियग्गामो । तं किन तुझ हे चित्त !, मुत्तिसोक्खम्मिवंछा वि ॥१९२४॥ सजिञ्जन्ति न करिणो, न पक्खरिजन्ति तुरयघट्टाई । नाऽऽयासिज्जइ अप्पा, वावारिजइ न खग्गं पि ॥१९२५॥ किन्तु सुहज्झाणेणं, अरिणो रागाऽऽइणो हणिजन्ति । तह वि तुमं माणस ! कीस, परिभवं सहसि तेहिंतो ॥१९२६॥ गुरुकहिओवाएणं, पढमं सालंबणं पयत्तेण । अब्भसिऊणं जोग, वियलियनिसेसपच्चूहं ........... ॥१९२७॥ जइ बज्झविसयचिन्ता-वावारविवजणा निरालंबे । तत्ते परे निलीयसि, ता चित्त ! न चेव चरसि भवे ॥१९२८॥ पयईए चलसहावं, दुइंति दियतुरंगथट्टमिणं । विसयाभिलासवेगं, विवेगरज्जूए संजमिउं
॥१९२९॥ जइ मण ! धरेसि सवसं, फुरन्ति रागाइसत्तुणो नतओ। इहरा उ परिभविञ्जसि, लद्धप्पसरेहि तेहिं सया ॥१९३०॥ जह न वरिसन्तमेहेहि', नेय पविसंतसरिसहस्सेहिं । उक्करिसो जलनिहिणो, न याऽवकरिसो वि तदऽभावे ॥१९३१॥ तह सयमुवितभोगोव-भोगजोगे वि हियय ! जइ तुह वि। नोक्करिसो तदऽभावे, न याऽवकरिसो वि होइ तया ॥१९३२॥ संपत्तपावियव्वं, सुकयऽत्थं तह परं तुमं चेव । भोगाइकयाऽऽसंसो, दुक्करकारी वि न उण मुणी ॥१९३३॥. अन्नं चमोहो एस नराणं, जं गिहचागा वणम्मि जोगरओ। साहइ मोक्ख ति भणंति, जेण सन्नाणओ मोक्खो ॥१९३४॥ तं पुण गिहे व रन्ने व, होइ कजं पि साहइ ससझं । उज्झिय सेसवियप्पं, चित्त ! विचिन्तेसु ता नाणं ॥१९३५॥ संसारुत्थपयत्था, परं सुरम्मा वि न हु हरंति तुमं । जइ मण चिट्ठसि सन्नाण-पवरपागारपरिखितं ॥१९३६॥
॥१५२॥