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संवेगरंगसाला
लच्छीए जइ न मअसि, नयाणवि रागाइयाण वसमेसि । रमणीहिन हीरिजसि, तरलिजसि जइन विसएहि ॥१९११॥ संतोसेण न मुञ्चसि, आलि गिजसि य जइ न इच्छाए। पावं च जइ न चिन्तसि, तुह चेव नमोऽत्थु ता चित्त! ॥१९१२।।
सन्तोषस्यमाहात्म्यम्।
॥१५॥
जइ ताव तुमं माणस!,रागं अमिसंगचागओ जिगसि । दोस अपीइपरिहा-रओ य मोहं तु सन्नागा ॥१९१३॥ कोहं खमाए सम्म, मिउभावाऽऽनयणओ य पुण माणं । सरलत्तणेण मायं, संतोसगुणेण लोहं तु ॥१९१४॥ संतोसवसं नयसि य, इंदियगाम बला वि जइ निच्च । जइ जीवाणं कप्पसि य, अप्पियं पियकए चेव ॥१९१५॥ अस्संजमम्मि अरई, रइं च पुण संजमम्मि जइ कुणसि । जइ भयसि भवभयं चिय, पावं चिय जइ दुगुंछिहसि ॥१९१६।। जइ वत्थुसरूऽऽवालोयणाउ, न करेसि हरिससोगाइ । तह वयणनिसिरणे जइ, सच्चं चिय चिन्तसे निच ॥१९१७॥ जइ जिणवरेसु भत्ति, निच्च तप्पवयणे पुण पसत्ति । सम्मं जहसत्तीए, धम्मगुणेसुं च आसत्तिं ॥१९१८॥ कालाऽणुरूवसुंदर-किरियापरपरमसाहुबहुमाणं । दीणदुहिएसु करुणं, पावपरेसु पुण उवेहं
॥१९१९॥ जइ कुणसि ता परेणं, कि किरियावित्थरेण विहलेणं । तुज्झ पसाएण ममं, मुत्ती करपल्लबल्लीणा ॥१९२०।। मइलिजइ निस्सासेहिं, दप्पणो लहु जहा सुविमलो वि । धूमेणं जलणसिहा, कलुसिजइ जह सुबहुलेण ॥१९२१॥ 'विच्छाइजइ जह ससहरो वि, पसरंतरेणुपडलेण । तह मण ! कुवासणाए, मलिणिजसि धवलमऽवि तं पि ॥१९२२॥ जं नियमिय अप्पाणं, न रागदोसाऽऽइनिग्गहो विहिओ । न य सुहझाणग्गीए, दडूढो कम्मेंधणपबन्धो ॥१९२३॥
॥१५॥