________________
संवेगरंगसाला
॥१३२॥
|| १६७१ ॥
॥१६७२ ॥
॥१६७३ ॥
॥१६७४ ॥
॥१६७५॥ ॥ १६७६ ॥
ईसा एहिं भणियं सामी ! पणा सुदुक्करं विहियं । परपुरिससमीवे जेण, पेसिया सव्वरीए पिया भणियं छुहाएहिं सुदुक्करं रक्खसेण चैव कयं । जेण चिरं छुहिएण वि, न भक्खिया भक्खणिजा वि अह पारदारिएहि, पर्यंपियं देव! मालिओ एक्को । दुक्करगारी जेगं, चत्ता सा निसि सयं पत्ता पाणेण जंपियं होउ, ताव चोरेहिं दुक्करं विहियं । परिके वि विमुका, समुन्ना जेहिंसा तइया एवं वृत्ते चोरो त्ति, निच्छिउ सोऽभरण मायंगो । गिण्हाविऊण पुडो, कहमाऽऽरामो विलुतो त्ति तेगं पयंपियं नाह!, पवरविजावलेण णियएण । कहिओ य वइयरो सेणि- यस्स एसो समग्गो वि रन्ना वि संसियं देह, मज्झ जड़ कहवि निययविज्जाओ । सो पाणो ता मुंचह, इहरा से हरह जीयं ति पडिवन्नं पाणेणं, विज्जादाणं पि अह महीनाहो । सिहासणे निसण्णो, विज्जाओ पढिउमादत्तो ॥१६७८।। पुणरुत्तपयत् कित्तिया वि, रन्नो न ठंति जा विज्जा । सो ता तज्जइ रुट्ठो, न रे ! तुमं देसि सम्मं ति || १६७९ ।। अएण भणियमिह देव !, नत्थि एयस्स थेवमवि दोसो । विणयग्गहिया हि विज्जाओ, ठंति फलदा य जायंति ॥ १६८० ॥ ता पाणमिमं सीहासणम्मि, ठविऊण सयमऽवि महीए । होऊण विणयसारं, पढसु जहा ठंति इन्हि पि ॥ १६८१ || तह चैव कयं रन्ना, संकंताओ लहु च विजाओ । सकारिऊण मुको, पाणो अच्चंतपणइ व्य इय जइ इहलोइयतुच्छ —–कञ्जविजा वि भावसारेण । पाविजह हीणस्स वि, गुरुणो अच्चतविणएण
॥ १६७७॥
॥१६८२॥ ॥१६८३ ॥
कन्याकथायाः
भावोपलम्भद्वारेण
स्तेन प्राणप्राप्तिः विद्यादानस्वीकारथ ।
॥१३२॥