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________________ संवेगरंगसाला प्रातःसमयभावना गुणेषु अवितृष्णत्वं ॥१२४॥ जं पि य पयईए चिय, दुग्गंधिमलाविल विलीणं च। पयइअहोगतिदारं, बीभच्छं कुच्छणिजं च ॥१५६५॥ अइलजणीयमंगुल-रूवं ति १ठइजइ य किर रमणं । तम्मि वि रमेज जो नणु, स केण अव्वो विरज्जेज ॥१५६६॥ एवंगुणाण सीमंतिणीण, रमणम्मि जे विरत्तमणा । जम्मजरामरणाणं, दिनो हु जलंजली तेहिं ॥१५६७।। इय जेण जेण बाहा, हवेज तं तस्स तस्स पडिवकूखं । पुव्वाऽवरनिसिसमए, सम्मं भावेज किं बहुणा ॥१५६८॥ तित्थयरप्पडिवत्ति, पंचविहाऽऽयारसारगुरुभत्ति । सुविहियजइजणसेवं, सम-समहियगुणसमावासं ॥१५६९।। अप्पुन्वगुणसमजण-मऽप्पुव्वापुव्वतरसुयऽब्भासं । अप्पुव्वत्थाऽहिगम, अपुवाऽपुन्वसिक्खगहं ॥१५७०॥ सम्मत्तगुणविसुद्धिं, जहगहियवएसु निरइयारत्तं । अंगीकयधम्मगुणा-विरोहिगिहकज्जकारित ॥१५७१।। धम्मे च्चिय धणबुद्धि, समधम्मिसु चेव गाढपडिबंध । आगमविहिविहियातिहि-प्पयाणपरिसेसभोइत्तं ॥१५७२।। इहलोयसिढिलभावं, परलोयाराहणेकरसियत्तं । चरणगुणलंपडतं, जणवायाभिगमभीरुत्तं ॥१५७३॥ संसारमोक्खपरमत्थ-दोसगुणभावणाणुसारेण । पइवेलं चिय सम्मं, परमं संवेगरसगमण ॥१५७४॥ सव्वत्थ विहिपरतं, जिणसासणपरमसमरसाऽऽपत्ति । संवेगसारसमइय-सज्झायज्झाणरसियत्तं ॥१५७५॥ एमाइ उत्तरोत्तर-गुणगणमऽवियन्हमाणसो धीमं । आराहेंतो सम्मं, गमेज्ज कालं कुलपसूओ ॥१५७६॥ एवं च गुरु पि गिरि, आरुहइ पयंपएण जह कोई । आरहाणागिरि तह, सम्मं धीरो समारुहिही ॥१५७७॥ १ स्थग्यते = आच्छाद्यते । ॥१२४॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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