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________________ संवेगरंगसाला कूलवालकस्य स्त्रीशकाशात् पतनविषये गुरोः कथनम् | तस्य उग्रतप:करणं च। ॥१९॥ जइ एत्थ वि पत्यावे, उवेहियो एस निस्सहावो वि । ता जाजीवं निभ-च्छिही ममं दुट्ठसिक्खाहिं ॥१२३८॥ इय चितिऊण पद्वि-द्विएण महई सिला परिम्मुकका । सूरीणं हणणट्टा, दिट्ठा य कहंपि सा तेहिं ॥१२३९॥ तो ओसरि सिग्धं, पयंपियं रे महादुरायार ! । गुरुपच्चणीय ! अच्चत-पावमिय ववसिओ कीस ॥१२४०॥ न मुणसि लोगठिई पि हु, उबयारिसु जं करेसि वहबुद्धिं । 'जेसुवयारे थोवं, समग्गतइलोक्कदाणं पि ॥१२४१।। मन्नति उवयारं, तणे वि सीसा उ केवि अवणीए । उट्ठिति वहाय परे, तुमं व सुचिरोवचरिया वि ॥१२४२॥ अहवा कुपत्तसंगहवसेण, एसेव नूण होइ गई । न कयाइ महाविसविस-हरेण सह निव्वहइ मेत्ती ॥१२४३।। इय एवंविहगुरुपाव-कम्मनिम्मूलदलियसुकयस्स । सव्वन्नुधम्मपालण-दूराजोग्गस्स तुह पाव! ॥१२४४।। होही एत्तो इत्थी-सयासओ नूण लिंगचाओ वि । एवं सवि सूरी, जहागयं पडिनियत्तो ति ॥१२४५।। तह काहं जह एयस्स, सूरिणो भवइ वयणमस्सच्चं । इय चिंतिउं कुसिस्सो, सोय गओऽरनभूमीए ॥१२४६॥ जणसंचारविरहिए, एगम्मि तावसाऽऽसमम्मि ठिओ । कूले नईए उग्गं, तवं च काउं समाढत्तो ॥१२४७॥ पत्ते य वरिसयाले, तत्तवतुहाए देवयाए नई । मा हीरिही जलेणं ति, वाहिया अवरकूलेण ॥१२४८|| अह कूलंऽतरलग्गं, दट्टण नई जणेण से विहियं । तद्देसगेण गुत्तं', अमिहाणं कूलवालो त्ति ॥१२४९॥ तप्पहपयदृसत्थाओ, लद्धमिकखाए जीवमाणस्स ! । लिंगच्चागो जाओ, जह से तह संपयं भणिमो ॥१२५०॥ १ येषामुपकारे ॥१९॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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