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________________ संवेग रंगसाला चौर्याय गमने गणिकाऽवस्था| दर्शन श्रेष्ठिकोग्दर्शन च। ॥८ ॥ नूणं न तह बहुधणं, अत्थि गिहे एत्थ कलहकरणाओ । 'छुल्लुच्छलंति ऊणाई, जेण लोए वि पयडमिणं ॥१०१३॥ संते वि हु थोवधणे, मुटे का होज मज्झ संपत्ती । नहि बिंदुणा भरिजइ, अइगरुएण वि नईनाहो ॥१०१४॥ इय तं मोत्तूग घरं, स महप्पा सयलनयरिपयडाए । गणियाए देवदत्ताए, मंदिरम्मि गओ झत्ति ॥१०१५।। खत्तं च पाडिऊणं, कयकरणो रयणरम्ममित्तिम्मि । वासभवणे पविट्ठो, अच्छिन्नजलंतदीवम्मि ॥१०१६॥ दिट्ठा य सुहपसुत्ता, सेजाए गाढकोढसुढिएण । एगेण नरेण समं, सा गणिया भीसणंगेण ॥१०१७॥ अहह ! कह एवंविह-धणवित्थारा वि पेच्छ दविणट्ठा । कुट्टि पि अभिगमंती, एसा इय वट्टइ अणज्जा ॥१०१८॥ अहवा अहं अणजो, जो एत्तो वि हु धणं समीहामि । ता पजत्तं इमिगा, परमिस्सरगिहमणुसरामि ॥१०१९।। ताहे समग्गवणिय-प्पहाणसे द्विस्स मंदिरे खतं । पाडित्ता सणियगई, झत्ति पविट्ठो भवणमझे ॥१०२०॥ पेच्छइ य तहिं सेट्ठि, करसंपुडधरियखडियसंपुडयं । पुत्तेण समं लेक्खग-मऽणुक्खगं चिय करेमाणं ॥१०२१॥ एत्थ य एगम्मि २ विसोवगम्मि, कहमवि अपुजमाणम्मि। रुट्ठो जंपइ सेट्ठी, रे! रे! कुलकवलणकयन्त! ॥१०२२॥ अवसर दिट्ठिपहाओ, मा गेहे मज्झ वसिहिसि खणं पि । एत्तियमेत्तऽत्थखयं, नाऽहं पिउणो वि हु सहिस्सं ॥१०२३॥ एवं पयंपमाणं, उन्भडकोवारुणच्छिविच्छोहं । तं पेच्छिऊण चिंतइ, पल्लिवई विम्हिओ संतो ॥१०२४॥ जो एगविसोवगविप्प-णासमऽवलोइऊण पुत्तमऽवि । निस्सारि समीहइ, सो जइ मुसियं गिहं मुणइ ॥१०२५॥ १ "छलकाय छे" इति भाषायाम् । २ "वसो" इति भाषायाम् । ॥८ ॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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