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________________ संवेगरंगसाला भगिन्या | पुरुषवेषकरणद्वितीयनियम फलप्राप्तिश्च। ॥८ ॥ तीए भणिय भाउग ! तुमए पगयम्मि विजयजत्ताए । एत्थागया नडा नच णद्वया तेहिं पुट्ठाऽहं ॥१०००। अच्छइ इह पल्लिवई, न व ति तो चिंतियं मए एयं । जइ नत्थि त्ति कहिस्स', ता सोचा कोइ रिउपुरिसो॥१००१॥ साहिस्सइ सीमालाणं, तुम्ह पडिबद्धगाढवेराणं । ते पुण लद्धोगासा, मा पल्लिं विद्दविस्संति ॥१००२॥ तेण मए भणियमिमं, अच्छइ सो पल्लिमउडमाणिक्को । सयमेव वंकचूली, नवरं कजन्तरासत्तो ॥१००३॥ कं वेल पेच्छणय, दंसेमो मे पयंपियं तेहिं । वुत्तं च मए रयणीए, जेण सोणाउलो नियइ ॥१००४॥ पारद्धं तेहिं तहेव, तयणु कयपुरिसचारुनेवच्छा । भाउजायाए समं, तुम व तहियं निसन्माऽहं ॥१००५॥ अह मज्झरत्तसमए, उचियं दाउं नडाण दायव्वं । निदाघुम्मिरनयणा, इमाए सद्धिं पसुत्तम्हि ॥१००६॥ एत्तो उवरिन मुणेमि, कि पि नवरं खडक्कयं सोचा । जीवउ भाया सुचिरं ति, जपमाणी विउद्घाऽहं ॥१००७॥ एवं सोचा य ईसि, पसन्तसोगो पुणो पुणो तेसिं । नियमाग फलं एयं ति, चिन्तयन्तो गमइ कालं ॥१००८।। अह परिवारविरहओ, पुराऽऽगरे लुटिङ अपारन्तो । दट्टण परियणं सीय-माणमुप्पन्नसंतावो ॥१००९॥ खत्तरखणणं विमोत्तूगं, एत्तो मे नत्थि जीवणोवाओ । इय निच्छिऊण एगो वि, सो गओनयरिमुज्जेणिं ॥१०१०॥ धणवन्तलोयमन्दिर-पवेसनीहरणदारपडिदारे । पेहित्ता य पविट्ठो, मुसणट्ठा गरुयगेहम्मि ॥१०११॥ अह तम्मि नवरि दीसंत-बाहिराकारसुंदरे सोचा । कलहं परोप्परं महिलि-याण चिंतेउमारद्वो ॥१.१२॥ ॥८॥
SR No.600386
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
PublisherKantilal Manilal Zaveri
Publication Year1969
Total Pages836
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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