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________________ जीववि. ७ मनुष्यके विषे तो चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन और केवलदर्शन ऐसे चारोही होते है ( सेसेसुतिगंतिगंभणियं ) वाकी के सब दंडकोके विषे केवल वर्जके तीनतीन दर्शन कहा है । इति चोवीश दंडक के ११-१२ - दर्शनद्वार ॥ १९ ॥ अन्नाणनाणतियतिय सुरतिरिनिरए थिरेअनाण दुगं । नाणा न्नाणदुविगले मणुसपणनाणतिअनाणा ॥२०॥ ( अन्नाणनाणतियतिय ) तीन अज्ञान और तीन ज्ञान (सुरतिरिनिरए) देवताको तथा तिर्यच और नारकके होते है (थिरेअनाणदुगं ) और स्थावरको मति तथा श्रुत ऐसे दो अज्ञान होते है ( नाणान्नाणदुविगले ) दो ज्ञान तथा दो अज्ञान विकलेंद्रिको होते है ( मणुपणनाणतिअनाणा ) और मनुष्यको तो पांच ज्ञान और तीन अज्ञान एसे आठोही होते है ॥ इति चौवीश दंडकमें ज्ञान अज्ञानद्वार १३ ॥ २० ॥ इकारससुर निरए तिरिएसुतेरपनरमणुपसु । विगलेचउपणवाए जोगतियंथावरे होई ॥ २१ ॥ ( इक्कारससुरनिरए) देवता और नारकको इग्यारे योग होते है ( तिरिएसुतेर ) तिर्यंचको तेरह ( पनरमणुएसु ) और मनुष्यको पन्द्रेही योग होते है ( विगलेचउ ) विकलेंद्रिको चार (पणवाए) वाउकायको पांच ( जोगतियंथावरेहोइ) और स्थावरको तीन योग होते है । इति चोवीश दंडकके योगद्वार १४ ॥ २१ ॥ उवओगामणुएसु बारसनवनिरयतिरियदेवेसु । विगलदुगेपणछक्कं चउरिंदिसुथावरेतियगं ॥ २२ ॥ ( उवओगामणुएस ) मनुष्यके विषे उपयोग (बारस ) बारह होते है ( नवनिरयतिरियदेवेसु ) नारक तिर्यच और
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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