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________________ दंडकप्रकरणम् ROCCOLCANORAKOOLESEOCESS (एगिदियाणकेवलि) एकेन्द्रीको केवली (तेउआहारगविणाउचत्तारि ) तथा तेजस और आहारक इस तीनुको वर- अर्थजके बाकीका चार समुद्घात एकेन्द्रिको होता है (तेवेउवियवजा) वह तिन और वैक्रिय यह चार वरजके (विगला- सहितम् सन्नीणते ) तीन समुद्घात विकलेन्द्रि ओर असन्नीको होता है (चेव) निश्चे करके ॥ १७॥ पणगष्भतिरिसुरेसु नारयवाऊसुचउरतियसेसे । विगलदुदिट्ठीथावर मिच्छत्तिसेसतियदिट्ठी ॥१८॥ (पणगभतिरिसुरेसु) परन्तु गर्भज तिर्यच और तेरह देवोंको प्रथमका पांच समुद्घात होता है (नारयवाऊसु) नारक और वाउकायके विषे प्रथमका (चउर) चार समुद्घात है (तियसेसे) और शेषके सात दंडकोके विषे प्रथमका तीन समुद्घात होता है ॥ इति चोवीस दंडके नवमा समुद्घात द्वार ॥ (विगलदुदिठ्ठी) विकलेन्द्रिको दो दृष्टि होती | है एक सम्यक् और दुसरी मिथ्यादृष्टि ऐसे दो (थावर) पांच स्थावरको (मिच्छत्ति) एक मिथ्यादृष्टिही होति है। (सेसतियदिठ्ठी) शेष रहे हुये जो सोलह दंडक उसके विषे सम्यक् मिश्र और मिथ्यात्व यह तीन दृष्टि होति है ॥१८॥ इति चौविश दंडकके दशमा दृष्टि द्वार ॥ थावरबितिसुअचक्खु चउरिंदिसुतदुगंसुएभणियं । मणुआचउदंसणिणो सेसेसुतिगंतिगंभणिय॥१९॥ (थावर) पांच स्थावरको (बितिसुअचक्खु) तथा वेइन्द्रि और तेइन्द्रिको एक अचखुदशनही होता है (चरिं-द॥३६ ॥ दिसु) चउरिंद्रिको (तदुर्गसुएभणियं) चक्षु तथा अचक्षु ऐसे दो दर्शन सूत्रमे कहा है (मणुआचउदंसणिणो) और Rotoresorts
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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