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________________ अर्थ नवतत्त्व- प्रकरणम् सहितम् ॥३१॥ कालद्वार ५ (पडिवायाभावाओ) सिद्धांके जीवोंको पिछा पडनेका अभाव है ॥ इति छठा द्वार ६ (सिद्धाणंअंतरनत्थि) सिद्धोंके जीवोंको अन्तर नहीं हैं कालकृत और क्षेत्रकृत दोनोंसें इति सातमा द्वार ॥४८॥ सबजियाणमणते भागेतेतेसिंदंसणंनाणं । खइएभावेपरिणामि एअपुणहोइजीवत्तं ॥४९॥ (सबजियाणमणंते) सब संसारी जीवोंसे सिद्ध के जीवों अनन्तमें (भागे) भागमे हैं इति आठमो द्वार ८ (तेतेसिदसणंनाणं) उन सिद्धोके जीवोंके केवलदर्शन और केवलज्ञान (खइए) क्षायिक (भाव) भावमे है (परिणामी एअ) | परिणामी हैं (पुण) यह पुनः (होइजीवत्तं) जीवत्वपना हे ॥४९॥ थोवानपुंससिद्धा थीनरसिद्धायकमेणसंखगुणा । इअमक्खतत्तमेअं नवत्तत्तालेसओभणिआ ॥५०॥ (थोवा) सबसे कम (नपुंस) नपुंसक (सिद्धा) सिद्ध हुवा (थी) नपुंसकसे स्त्रीसिद्ध संख्यातगुणा अधीक हैं स्त्री सिद्धसे (नरसिद्धा) पुरुष सिद्ध संख्यातगुणे हुए (कमेणसंखगुणा) अनुक्रमें संख्यातगुणा जानना (इअमुक्ख) यह मोक्ष (तत्तमेअं) तत्त्व जाणना इस प्रकारसें नव भेद कहे (नवतत्तालेसओभणिआ) इस प्रकारे नव तत्त्व संक्षेपसे कहेगये ॥५०॥ जीवाइनवपयत्थे जोजाणइतस्सहोइसम्मत्तं । भावेणसदहतो अयाणमाणेविसम्मत्तं ॥ ५१॥ (जीवाइ) जीवादि (नवपयत्थे ) नव पदार्थको (जोजाणइ) जो जीव जाणते है ( तस्सहोइसम्मत्तं ) उस जीवको ECORRUARCHROSECONCak CM
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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