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________________ भाषाटी नवतत्त्वसार्थ कासहित. SAASHRASES बनाता है तेसे ही यह नामकर्म आत्माको अछी बुरी गतियोंमे पहुंचा देता है नाना प्रकारके स्वरूपको धारण करा देता है ६ (कुलाल) यह गोत्रकर्म कुंभार जैसा है जैसे कुंभार अछे और बुरे नाना प्रकारके वरतन बनाते है तैसेही इस कर्मके उदयसें जीव ऊंच निच कुलको धारण करते है ७ (भंडगारीणं) इस अन्तराय कर्मका स्वभाव भंडारी जैसा हैं क्योंकि जब राजा किसीको दान देनेके लिये भंडारीको कहे परन्तु भंडारी उसको देवे नहीं ऐसेही इस कर्मके उदयसे जीव दानादि नहीं कर शकते है ८ (जहएएसिंभावा) जैसे इनुका भाव जैसा यह आठोही वस्तुका खभाव है तू (कम्माण) तैसेही आठोही कर्मोकाभी (विजाण) जानो (तहभावा) तैसेही कर्मोका स्वभाव ॥ ३८॥ इहनाणदंसणावरण वेयमोहाउनामगोआणि । विग्धंचपणनवदुअठवीस चउतिसयदुपणविहं ॥ ३९॥12 PI (इहनाण ) यह ज्ञानावरणीयकर्म १ (दसणावरण) और दुसरा दर्शनावरणीकर्म २ (वेयमोहाउनामगोआणि) तीसरा वेदनीयकर्म ३४ मोहीनीकर्म ५ आयुकर्म ६ नामकर्म और सातमा गोत्रकर्म ७ (विग्धं) अन्तरायकर्म ८ (च) | यह आठ कर्म (पण ) ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियों पाँच है (नव) और दर्शनावरणीयकी उत्तरप्रकृति नव (दु) वेदनीकी प्रकृति दो (अठवीस) मोहीनीकर्मकी उत्तर प्रकृति अठ्ठावीस (चउ) आयुकर्मकी उत्तर प्रकृति चार (तिसय) नामकर्मकी उत्तर प्रकृति एकसो तीन (दु) गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृति दो (पण) और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृति पांच ( विहं) ऐसे सब कर्मोंकी उत्तर प्रकृति एकसें अठ्ठावन जान लेना ॥ ३९ ॥ ॥ २९॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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