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________________ ( पयइसहावत्तो) प्रकृतिबन्ध इसलिये कर्मोंका स्वभाव ( ठिईकालावहारणं ) कर्मोकी स्थिति - कालका निश्चय वह स्थितिबन्ध २ ( अणुभागो) ३ अनुभाग बन्ध सो ( रसोनेओ) कर्मोंका रस जानना ( पएसो ) ४ प्रदेशबन्ध ( दलसंचओ) कर्मोंके दलका संचय ॥ ३७ ॥ पडपडिहारसिमज्ज हडचित्तकुलालभंडगारीणं । जहएएसिंभावा कम्माणविजाणतहभावा ॥ ३८ ॥ (पड़) पाटा, जैसे किसीके आंखोंपर बन्धे हुए पाटेके संयोगसे कुछ नहीं देखाइ देता तेसे ही ज्ञानावरणीय कर्मके स्वभावसें आत्माकों अनन्त ज्ञान नहीं होता है १ ( पडिहार) द्वारपालकेसमान दर्शनावरणीय कर्मका स्वभाव है जैसे राजाको दर्शन चाहनेवालेको द्वारपाल रोक देते है उसी तरह आत्माके दर्शनगुणको दर्शनावरणीय कर्म रोक देता है २ ( असि ) तरवार, वेदनी कर्मका स्वभाव ऐसा है कि जैसे सहत्त खरडी तलवारकी धारको चाटनेसें अच्छा लगता है मगर जब जीभ कटजाति है तब दुख होता है वैसीही तरह शातावेदनीसें जीवको सुख होता है और अशातावेदनीसें जीवको दुख होता है ३ ( मज्ज ) मदराकीछाक समान मोहनीयकर्मका स्वभाव है जैसे मदिरासें जीव बेभान होजाते है तेसेही मोहनीय कर्मके उदयसें जीव संसारमें मुंझाते हैं यह कर्म आत्माका सम्यग्दर्शनको और सम्यक् चारित्र गुणों को रोकता है अर्थात् ढक देता है ४ ( हड ) खोडासमान आयुकर्म है जैसे खोडेमें पडे हुए चोर राजाके हुकम बिन नही निकल शकते है तैसे ही आयुकर्मके जोरसे जीव गतीसे नही निकल शकते है ५ (चित्त) इस नामकर्मका स्वभाव चित्रकार जैसा हैं यह कर्म आत्माके अरूपि धर्मको रोकता है जैसे चितारा अच्छा बुरा नाना प्रकारका चित्राम
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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