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________________ नवतत्त्वसार्थ ॥२७॥ है आत्माका मूलधर्म अविनाशी है १ (असरणं) अशरण भावना कि मृत्युके समय इस जीवको संसारमें धर्म बिना भाषाटीकोई भी शरणभूत नही है एक धर्मही शरण है ऐसा बिचारना सो २ (संसारो) संसारभावना इस भावनामें भव्य कासहित. ऐसा विचारे कि मेरे जीवने चौरासी लाख योनिमें परिभ्रमण करते अनन्तेकालचक्र होगये है इस संसारमें पिता सो पुत्र और पुत्र सो पिता ऐसा उलट सुलट अनंती बेर होता है ऐसा बिचारना सो संसार भावना ३ (एगयाय) एकत्व भावना इस भावनामें भव्य ऐसा चिंतवे कि मेरा जीव अकेलाही आये है और अकेलाही जावेंगा सुखदुःख भी अकेलाही भोगेंगो ४ (अन्नत्तं ) अन्यत्त्व भावना इसमें भव्य ऐसा विचारे कि मेरा आत्मा अनन्त ज्ञानमयी है और शरीर जड पदार्थ है शरीर आत्मा नहीं है न आत्मा शरीर है ऐसा सदैव विचारे ५ (असुइत्तं) अशुचि भावना यह शरीर खून माँस हड्डी मलमूत्र आदिसें भराहुआ ऐसा जो विचारना वह अशुचित्व भावना ६ (आसव) आस्रव भावना रागद्वेष और अज्ञान मिथ्यात्व आदिके जोरसें नये नये कर्मका जो आना अर्थात् शुभाशुभका विचार वह आस्रव ७ (संवरोअ) संवर भावना शुभाशुभ विचारको छोडकर स्वसरूपमें लीन रहना अर्थात् नवीन कर्मको आने नहीं देना वह निश्चय संवर और अकेला अशुभ विचारोंको रोकदेना सो व्यवहार संवर भावना ८ (तह) तेसेही (निजरानवमी) नवमी निर्जरा भावना निर्जराके दो भेद है एक सकाम निर्जरा और दुसरी अकाम निर्जरा ९॥३०॥ लोगसहावोबोही दुल्लहाधम्मस्ससाहगाअरिहा । एआओभावणाओ भावेअवापयत्तेणं ॥३१॥ Anon (लोगसहावो) दशमी लोकस्वभाव भावना इसमें चौदहराजलोकका स्वरूप विचारना ( बोहीदुलहा) ११ मी
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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