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________________ जीवविचार भाषाटीकासहित. ॥११॥ NAGAMASTARANG सस्थान कहते है. प्रथम प्रकारके किल्बिषिकोंकी तीन पल्योपम आयु है और वे पहले तथा दूसरे देवलोकके नीचे रहते हैं. दूसरे प्रकारके किल्बिषिकोंकी आयु, तीन सागरोपमकी है और वे तीसरे तथा चौथे देवलोकके नीचे रहते हैं. तीसरे प्रकारके किल्बिषिकोंकी आयु तेरह सागरोपम है और वे पाँचवें तथा छठे देवलोकके नीचे रहते हैं. ये सब किल्बिषिक देव, चाण्डालके समान, देवोंमें नीच समझे जाते हैं. लोकान्तिक देव, पाँचवें देवलोकके अन्तमें उत्तर-पूर्वादि कोणमें रहते हैं. चौसठ इन्द्रः-भवनपति देवोंके वीस, व्यन्तरोंके बत्तीस, ज्योतिषियोंके दो और वैमानिक देवोंके दस, सबकी संख्या मिलानेपर इन्द्रोंकी चौसठ संख्या होती है. | शास्त्र में देवोंके १९८ भेद कहे हैं, उनको इस तरह समझना चाहियेः-भवनपतिके दस, चर ज्योतिष्कके पाँच, स्थिर ज्योतिष्कके पाँच, वैताढ्यपर रहनेवाले तिर्यक् जृम्भक देवोंके दस भेद, नरकके जीवोंको दुःख देनेवाले परमाधामीके पन्दरह भेद, व्यन्तरके आठ भेद, वानव्यन्तरके आठ भेद, किल्बिषियोंके तीन भेद, लोकान्तिकके नव भेद, बारह देवलोकोंके बारह भेद, नव ग्रैवेयकोंके नव भेद, पाँच अनुत्तरविमानोंके पाँच भेद, सब मिलाकर ९९ भेद हुए, इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूपसे दो भेद हैं, इस प्रकार १९८ भेद देवोंके होते हैं. मनुष्योंके ३०३ भेद पहले कह चुके। | अब तिर्यश्चके ४८ भेद कहते हैं:-पाँच सूक्ष्मस्थावर, पाँच बादरस्थावर, एक प्रत्येक वनस्पतिकाय और तीन विक लेन्द्रिय सब मिलाकर चौदह हुए; ये चौदह पर्याप्त और अपर्याप्त रूपसे दो प्रकारके हैं, इस तरह अट्ठाईस हुए जलदाचर, खेचर, तथा स्थलचरके तीन भेदः-चतुष्पद, उर परिसर्प तथा भुजपरिसर्प, ये प्रत्येक संमूर्छिम और गर्भज होनेसे ACCIENCHAR
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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