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________________ पाकी कर्म तेने उदयरूप परभाव छे तेपण यथार्थ ज्ञान विना भेदज्ञानशून्य जीवने एक करी माने छे ते अशुद्ध व्यवहार कहिये तेना बे भेद छे. १ संश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते जे शरीर मारुं हुं शरीरी इत्यादिक संश्लेषित असद्भूत व्यवहार, २ असंश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते आ पुत्र मारो धनादिक मारा एम कहेवू ते असंश्लेषित असद्भूत व्यवहार तेना उपचरित अनुपचरित ए बे भेद जाणवा. । तथा विशेषावश्यक महाभाष्यमां कडं छे जे व्यवहारनयना मूल बे भेद छे एक वेंहेचणरूप व्यवहार बीजो प्रवृत्ति व्यवहार ते वली प्रवृत्तिना त्रण भेद छ, १ वस्तु प्रवृत्ति, २ साधन प्रवृत्ति, ३ लौकिक प्रवृत्ति तेमां वली साधन प्रवृत्तिना त्रण भेद छ, १ जे अरिहंतनी आज्ञायें शुद्ध साधनमार्गे इहलोक संसार पुद्गलभोग आशंसादि दोष रहित जे रत्नत्रयीनी परिणति परभावत्याग सहित ते लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति, २ जे स्याद्वाद विना मिथ्याभिनिवेश सहित साधनप्रवृत्ति ते कुप्रावचनिक साधनप्रवृत्ति, ३ अने जे लोकना स्वस्वदेश कुलनी चाले प्रवृत्ति ते लोकव्यवहार प्रवृति । ए त्रण प्रवृत्ति कहियें. ए व्यवहारनयना भेद जाणवा. तिहां द्वादशसार नयचक्रमां एकेक नयना सो सो भेद कह्या छे ते जैनशासन रहस्यना जाण जीवे ते ग्रंथमाथी धारवा ए व्यवहारनय कह्यो. उज्जं ऋजुं सुयं नाणमुजुसुयमस्स सोऽयमुजुओ । सुत्तयइ वा जमुज्जुं वत्थु तेणुजुसुत्तो त्ति ॥१॥ उज्जति ऋजुश्रुतं सुज्ञानं बोधरूपं ततश्च ऋजु अवक्रम्श्रुतमस्यसोऽयमृजुश्रुतं वा अथवा त्तिना भरणति परभावत्याग प्रवृत्ति, ३ अने हा द्वादशसार नयचा जीचवि.२३/
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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