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अर्थ-हवे संग्रहनय कहे छे सामान्ये मूल सर्व द्रव्य व्यापक नित्यत्वादिक सत्तापणे रह्या जे धर्म तेनो जे संग्रह करे | ते संग्रह कहिये तेना बे भेद छे १ सामान्य संग्रह, २ विशेष संग्रह वली सामान्य संग्रहना बे भेद छे १ मूल सामान्य संग्रह, २ उत्तर सामान्य संग्रह वली मूल सामान्य संग्रहना अस्तित्वादिक छ भेद छे ते पूर्व कह्या छे तथा उत्तर सामान्यना बे भेद छे, १ जातिसामान्य, २ समुदायसामान्य तिहां गायना समुदायमां गोत्वरूप जाति छे तथा घटसमुदायमां घटत्वपणो अने वनस्पतिने विषे वनस्पतित्वपणो ते जातिसामान्य कह्यो अने आंबाना समूहनें विष अंबवन कहे तथा मनुष्यना समूहमां मनुष्य ग्रहण थाय ते समुदाय सामान्य ए उत्तर सामान्य ते चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शनने ग्राहीक छे अने मूल सामान्य ते अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनथी ग्रहवाय छे अथवा १ सामान्यसंग्रह, २ विशेषसंग्रह तिहां छ द्रव्यना समुदायने द्रव्य कयु ए सामान्य संग्रह इहां सर्वनो ग्रहण थयो छे अने जीवने जीवद्रव्य कंही अजीवद्रव्यथी
जूदो भेद पाड्यो ए विशेषसंग्रह ए विशेषसंग्रहनो विस्तार घणो छे तथा विशेषावश्यकथी संग्रहनयना चार भेद ते लखिये |छियें मूल पाठमां कहेली गाथानो अर्थ छे. | संग्रहणं के० एकठो एकवचन मध्ये एक अध्यवसाय उपयोगमां समकालें ग्रहे, सामान्यरूपपणे सर्व वस्तुनो आक्रोडण ग्रहण करवो ते संग्रह कहिये अथवा सामान्यरूपपणे सर्व संग्रह करे ते संग्रह कहिये, अथवा जेथकी सर्व भेद सामान्यपणे ग्रहियें तेने संग्रह कहियें, अथवा संगृहीतं पिण्डितं के जे वचनथी समुदायअर्थ ग्रहवाय ते संग्रह वचन कहिये तेना चार भेद छे. १ संगृहीत संग्रह, २ पिण्डित संग्रह, ३ अनुगम संग्रह, ४ व्यतिरेक संग्रह.