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________________ तयचक्रसार मूळ ॥११८॥ पण छे तथा स्वस्वाय तेथी गुणनो अनेकपा माटे द्रव्यनो एकपणो छ. सर्वनो भिन्न प्रवाह छे एटले सर्वनो कार्यपणो भिन्न छे ते माटे द्रव्यने सर्वस्वभाव पर्याय भेदें विचारतां द्रव्यमां अनेक बालावस्वभाव पण छे. जो वस्तुमा एकपणानो अभाव मानियें तो सामान्यपणो रहे नही अने गुणनो पर्यायनो स्वामी आधार बोधसहित ते कोण थाय ? अने आधार विना गुणादि आधेय ते क्यां रहे? ते माटे द्रव्यनो एकपणो छे. जो वस्तुमा अनेकपणो न |मानियें तो द्रव्य ते विशेष रहित थई जाय तेथी गुणनो अनेकपणो शीरीते द्रव्यनेविषे पामियें ? माटे द्रव्यमां गुणकार्यनो अनेकपणो पण छे तथा स्वस्वामित्व व्याप्यव्यापकभाव केम ठेरे? जे गुण पर्याय ते स्व के० धन अने द्रव्य ते तेनो स्वामी छे अथवा द्रव्य ते व्याप्य अने गुणपर्याय ते व्यापक छे ए रीते द्रव्यमां एकस्वभाव तथा अनेक स्वभाव जाणवा. & स्वखकार्यभेदेन खभावभेदेन अगुरुलघुपर्यायभेदेन भेदखभावः अवस्थानाधारताद्यभेदेन अभे दखभावः भेदाभावे सर्वगुणपर्यायाणां सङ्करदोषः गुणगुणीलक्षलक्षणः कार्यकारणतानाशः अ. है भेदाभावे स्थानध्वंसः कस्यैते गुणाः को वा गुणी इत्याद्यभावः ॥ | अर्थ-स्वस्व के पोतपोताना कार्यने भेदें करी एटले जीवद्रव्यमां ज्ञानगुण ते जाणवान कार्य करे अने दर्शनगुण देखवानो कार्य करे तथा चारित्रगुण थिरतारमणतारूप कार्य करे तथा पुद्गलद्रव्य ते रूपपणो भिन्न कार्य करे, तथा वर्ण-18॥११॥ पणो, गंधपणो रसपणो अने स्पर्शपणो, सर्वकार्य भिन्न छे. तथा स्वभावभेद ते अस्तिस्वभाव छति रूप छे. नित्यस्वभाव |
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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