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________________ नयचक्र सार मूळ ॥ ११२ ॥ तथा जो वस्तुमध्ये नास्तिपणो न मानियें तो ते वस्तु कदाकालें पर वस्तुपर्णे अथवा परगुणपणें परिणमि जाय तेथी कोइवारें जीव ते अजीवपणो पामे अने अजीव ते जीवपणो पामे तो सर्व संकरतादोष उपजे तथा व्यंजन के० प्रकटतानो हेतु तेने योगें छतो धर्म ते फुरे पण जे धर्मनी सत्ता छति न होय ते फुरे नही. जो नास्तिपणो न मानियें तो असत्तापणे फुरे अने जेवारें असत्ता स्फुरे तेवारें द्रव्यनो अनियामक के० अनिश्चयपणो थइ जाय, ते माटे सर्व भाव अस्ति नास्तिमयी छे. व्यंजकतानो दृष्टांत कहे छे. जेम कोरा कुंभमां सुगंधतानी सत्ता के तोज पाणीने योगें वासना प्रगटे छे. जो वस्त्रादिकमां ते धर्म नथी तो तेमां प्रगटतो पण नथी एम सर्वत्र जाणवो . हवे त्रीजो नित्य स्वभाव कहे छे ते जे वस्तुना भाव तेनो अव्यय के० नही टलवो एटले तेमनो तेमज रहेवो ते नित्यपणो कहियें तेना वे भेद छे ते कहे छे. एका अप्रतिनित्यता द्वितीया पारंपर्यनित्यता । तथा द्रव्याणां ऊर्ध्वप्रचयतिर्यग्प्रचयत्वेन तदेव द्रव्यमिति ध्रुवत्वेन नित्यस्वभावः नवनवपर्याय परिणमनादिभिः उत्पत्तिव्ययरूपोऽनित्यस्वभावः उत्पत्तिव्ययस्वरूपमनित्यम् ॥ १ ॥ अर्थ - एक अप्रच्युतिनित्यता बीजी पारंपर्यनित्यता तिहां अप्रच्युतिनित्यता तेने कहियें जे द्रव्य ते उर्ध्व प्रचय तिर्यक् प्रचयने परिणमवे ए द्रव्य तेहिज ए ध्रुवतारूप ज्ञान थाय छे एटले सदा सर्वदा त्रणे काले तेहिज एवं जे ज्ञान थाय छे बालावबोधसहित | ॥ ११२ ॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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