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________________ तथा सर्वो घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां सत्वासत्वाभ्यामर्पितो युगपद्वक्तुमिष्टोऽवक्तव्यो भवति खपरपर्यायसत्वासत्वाभ्यां एकैकेनाप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य वतुमशक्यत्वादिति, एवं जीवस्यापि सत्वासत्वाभ्यामेकसमयेन वक्तुमशक्यत्वात् स्यादवक्तव्यो जीव इति तृतीय भङ्गः । एते त्रयः सकलादेशाः सकलं जीवादिकं वस्तुग्रहणपरत्वात् ॥ अर्थ - सर्वघटादिवस्तु छे ते स्वपर्याय जे पोताना सद्भावपर्याय तेणे करी छतापणे कहेवाय तथा परने पर्यायें अछता पण कहेवाय, तेवारें स्वपर्यायनो छतापणो परपर्यायनो अछतापणो ए वे धर्म समकालें छे पण एकसमयें क हेवाय नही ते माटे ए घटादि द्रव्य ते स्वद्रव्यमां स्वपर्यायनो सत्वपणो, परपर्यायनो असत्वपणो, ते कोइ पण एक | सांकेतिक शब्दें करी कहेवाने समर्थ नही माटे सत्व अस्तिपणो असत्व नास्तिपणो ते एक समयें कहेवामां असमर्थ छे तेथी वस्तुस्वभावना वे धर्म ते एक समये छता छे तेनो ज्ञानकरवा माटे स्यात् अवक्तव्य ए वचन बोल्या. केमके कोइकने एवो बोध थाय जे सर्वथी वचने अगोचरज छे ते माटे स्यात्पद दीधो स्यात् के० कथंचित्पणे कोइक रीतें | एकसमये न कहेवाय माटे स्यात् अवक्तव्य ए जीव छे. एम सर्वद्रव्य जाणवा. ए त्रीजो भांगो थयो . ए त्रण भंगा | सकलादेशी छे. सर्व वस्तुने संपूर्णपणे ग्रहेवारूप छे. जीवादिक जे वस्तु तेने संपूर्ण ग्रहेवावंत छे.
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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