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आगमसार
॥ ८१ ॥
च्छिजो भिज्जो जाय खओ, जो इह मे हु शरीरं । अप्पा भावे निम्मलो, जं पात्रं भवतीरं ॥ ९ ॥ अर्थ - भव्य प्राणी एम चिंतवे जे ए शरीर छीजजाओ भेदीजजाओ क्षयथइजाओ विणशीजाओ ए माहारुं शरीर पुद्गलीक छे परवस्तु छे ते एकदिवसें मूकवुं छे माटे रे प्राणी ! तुं आपणी आत्माने निर्मल पणे ध्याव तो संसारथी तरीने कांठो पामीश.
एहि अप्पा सो परमप्पा, कम्म विसेसोई जायोजप्पा |
इयमे देवासो परमप्पा, वहु तुझे अप्पो अप्पा ॥ १० ॥
अर्थ - अहो भव्य जीव ! एहीज आपणो आत्मा छे ते शुद्ध ब्रह्म छे पण कर्मने वश पड्यो जन्ममरण करे छे पण ए शरीरमां जे जीव छे ते देव छे परमात्मा छे माटे तुमे आपणो आत्मा ध्यावो तरण तारण जिहाज ए आपणो आत्माज के एम श्री हेमाचार्ये वीतराग स्तोत्रमां कह्यो छे.
यः परात्मा परं ज्योतिः, परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्णोतमसः परस्तादामनंति यं ॥ १ ॥
सर्वे ये नोदमूल्यंत, समूलाः क्लेशपादपाः इत्यादि ॥
अर्थ - परमात्मा छे परमज्योति छे पंचपरमेष्ठीथी पण अधिक पूज्य छे केम के पंचपरमेष्ठीतो मोक्षमार्गना देखानारा हे पण मोक्षमां जवावालो तो आपणो जीव छे अज्ञाननो मिटावनार छे सर्व कर्म्म क्लेशनो खपावनार छे एवो
प्रकरणम्
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