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________________ A आगमसार ASARASAKASEASON अनंत गुणी छे जे वस्तुनो स्वरूप अतिशयावलंबी थया पछे आत्मानुं रूप एकता पणो एहवो जे ध्यान ते रूपस्थ ध्यान प्रकरणम् एत्रण ध्यान धर्म ध्यानमां गणवा. ४ निरंजन निर्मल संकल्प विकल्प रहित अभेद एकशुद्धता रूप चिदानंद तत्वामृत असंग अखंड अनंतगुण पर्यायरूप आत्मस्वरूपनुं ध्यान ते रूपातीत ध्यान जाणवू इहां मार्गणा गुणठाणा नयप्रमाण मतिआदिक ज्ञान क्षयोपशम भाव सर्व छांडवा योग्य थया एक सिद्धना मूल गुणने ध्यावे ते रूपातीत ध्यान जाणवो एटले मोक्षनुं कारण जे ध्यान ते कडं. ___ हवे भावना कहे छे. तेमां धर्म ध्याननी चार भावना कहे छे. १ मैत्रीभावना ते सर्व जीव साथे मित्रतानो भाव | |चिंतववो सर्वनुं भलुं चाहतुं पण कोइनु माटुं चिंतवq नही सर्व जीव ऊपर हितबुद्धि राखवी ते मैत्रीभावना २ गुणवंत 8 अने ज्ञानादिक गुण ऊपरें राग ते बीजी प्रमोदभावना ३ जे धर्मवंत ऊपर राग अने मिथ्यात्वी ऊपर राग नही तेम द्वेषपण नही कारण के हिंसक ऊपरें पण उत्तम जीवने करुणा उपजे जो उपदेश थकी सारामार्गे आवे तो तेने शुद्धमार्गे आणवो कदाचित-मार्गे न आवे तोपण द्वेष न राखवो केमके ते अजाण छे एम समजवू एहवा जे परिणाम ते मध्यस्थभावना ४ सर्व जीवनी पोताने तुल्यजाणी दया पाले कोइने हणे नही तथा जे दुःखी अथवा धर्महीन तेहना ऊपर करुणा तेना दुःख टालवानो परिणाम तथा धर्महीन जीव देखीने एवो चिंतवे जे ए जीव किवारें धर्म पामशेर यथार्थ आत्मसाधन पामी स्वरूप धर्मने किवारें अवलंबशे एवो परिणाम ते चोथी करुणा केहतां दयाभावना. ए चार भावना कही. ॥ ७६
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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