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धर्मविधि
पकरणम्
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॥१९९॥ तेसिं तु मूलदेवो, वियक्खयो नेव अक्खए सुमिणं । किं रयणाण परिक्खा, निप्पज्जइ लवणवणिएहि ॥२०॥ पत्तो कप्पडिएण वि, घरछार्याणयाइ मंडगो सगुडो, पाएण देइ सुमिणो, फलं वियाराणुमाणेण ॥ २०१ रायसुओ वि पभाए, पत्तो आरामिउ व्व आरामं । रंजइ पुप्फावचयाइ, विणयओ मालियं तत्य ।। २०२ ॥ तत्तो तदिन्नाई, पुप्फफलाईणि गिन्हिउँ पत्तो । सुमिणवियारगगेहे, सुइभूओ चेइयहरि च ॥ २०३ ॥ पणमिय सुमिणवियारग-मुवणे तस्स पुप्फफलपमुहं । कहिऊण य तं सुमिणं, पुच्छइ विणएण तस्सत्यं ॥ २०४ ॥ सो सुमिणफलं नाऊण, विम्हिओ भणइ वच्छ ! उवविससु । सुमुहुत्ते विज्जामिव, सुमिणत्थं तुह कहिस्सामि ।। २०५ ।। इय भणिय न्हाणजिमगा-इएहि संमाणिऊण अ. तिहिं व । सो ढोयइ नियकन्न, तह जंपइ वच्छ ! परिणेसु ॥२०६॥ तो भणइ मूलदेवो, अमुणियकुलसीलगुणवियारस्स । मह भद्द ! निययकन्ना, कह दाउं जुज्जए तुज्झ ॥२०७॥ सो भणइ भो गुणालय !, कुलसीलगुणाइयं मए नायं । विणयाइ गुणगणेहि, पयासियं तुह सहचरेहिं ॥२०८ ॥ इय तं पडिवज्जाविय, सो परिणावेइ तत्थ नियनं । अण. इच्छिया वि लच्छी, नराण पुन्नोदए हवइ ॥२०९।। अह सुमिणत्थं अक्खइ, दिव्वन्नाणी व तस्स सो एयं। तुह वच्छ ! | इह भविस्सइ, सत्त दिणभंतरे रजं ॥ २१० ।। अह सो सुमिणत्थेणं, देवयवयणाणुगामिणा तुट्ठो । रहिओ तत्थ पडतं, रज्जं अन्नेसयंतु व्व ॥ २११ ॥ पंचमदिणेहि पुन्नेहि, आहुओ इव वणे गओ बहिया । सुत्तो चंपयछायाइ, सो तर्हि खिन्नपहिउ व्य ।।२१२।। तइया य तप्पुरेसो, निप्पुत्तो नरवई मो तत्तो । जाया निन्नीरा इच्छियव्वलच्छी निरालंबा ।। २१३ ॥ अहिवासिया य हयगय-भिंगारच्छत्तचामरा दिव्वा । सचिवाइएहि तइया, रज्जारिहपुरिसलाभकए