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________________ 18| पुम्बग्गहियाभिग्गह-मणुसरि भणइ वकचूली वि । जई नरवाणी भज्जा, ता मह जणणिव्य होसि तुम ॥२०७॥ पुग रवि महाणुभाषी, मा सुममेवं समुल्लविज्जासु । मइलिज्जइ जेण कुलं, कुलप्पसूयाण तमकिच्चं ॥२०८।। अहह ! महामुद ! किमेव-मणुचियं वाउलु व्च वाहरसि । इय निम्भच्छंतीए, तीइ सकोवाइ भणिओ सो ॥ २०९।। जं सुमिणे विन पिच्छसि, भूवइभज्जंतमिन्दि संपत्तं । किं मूढ ! नोवभुंजसि, पडिभणियं तेण इत्तो य ॥ २१०॥ अंब ! विमुंच ग्गाह, मणसा वि हु चिंतियं न जुत्तमिमं । वरमुग्गविसं भुत्तं, मा कय एवंविहमकज्जं ॥ २११ ॥ वयणपडिकूलणावस-सविसेससमुल्लसंतकोवाए । पयडक्खरेहि भणिय, देवीए तं पडुच्च इमं ॥ २१२ ॥ होसि वसे मज्झ तुमं, हयास ! नूर्ण विडंबिओ संतो। जाइस्सइ सग्गं नग्ग-खवणओ नवरि विग्गुत्तो ॥ २१३ ।। अह तेण जंपिया सा, अंबे ! अंब ति पुन्चमुल्लविउं । तुममेव संपयं कह, जायं भणिऊण सेवेमि ।। २१४ ॥ एयं च तदुल्लावं, कडगंतरिओ समग्गमवि सुच्चा। देवीपसायणहा, चिराग-५ ओ चिंतए राया ।।२१५ ॥ अच्छरियमहोसम्माण-दाणरंजिज्जमाणहिययावि । नावत्थाणं बंधइ, इत्यी एगस्थ पुरिसम्मि ॥२१६ ॥ जेण मृकुलुम्भवा वि हु, अणुरत्तमणं ममवि मुत्तण । अमुणियनामं पि नरं, कामिउमिच्छइ इमा एवं ॥२१७॥ धीधी पडिबंधो सव्वहा वि, रामासु सुहविरामासु । जं कुसला वि इमाहि, खिप्पं खिप्पंति विहुरंमि ॥ २१८ ॥ अज्जवि कोइ सुपुरिसो, एसो चोरो न जो मुयइ मेरं । पत्थिज्जंतो वि इमाइ, सामभेयाइभणिईहिं ॥२१९ ।। अज्जवि रयणाधारा, पुहवी अज्जवि न एइ कलिकालो । दीसंति जेण एवं-विहाइ वरपुरिसरयणाई ॥ २२० ।। जे किर करिकुंभत्थल-मिक्कपहारेण चेव खंडति । ते विहु जुवईसवियार-दसणेणावि खुम्भंति ॥ २२१ ।। एसो य महासचो, इमीइ इह पत्थिो MOREGALGAR
SR No.600381
Book TitleDharm vidhi Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaysinhsuri, Shreeprabhsuri
PublisherHansvijayji Library
Publication Year1924
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size24 MB
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