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________________ %A4% नवमा अधिकारमा परब्रह्म एटले शुं ! ते समजावी सिद्धना जीवोने संकडामण केम थती नथी ते माटे योग्य विवेचन दृष्टांत साथे करवामां आव्युं छे. __ दशमा अधिकारमा निगोदना जीवो, तेनुं स्वरूप, कर्मबंधनने अनुरूप दुःख, निगोदना जीवोनी अदृश्यता विगेरे विषयोनो समावेश करवामां आव्यो छे. अगियारमा अधिकारमा समग्र विश्व निगोदना जीवोथी परिपूर्ण होय तो विश्वमां बीजां कर्मों, पुद्गलराशि अने धर्मास्तिकायादि केम समाइ शके ! ते माटे गांधीनी दुकाननुं उदाहरण आपी वस्तुस्थितिनी चोखवट करवामां आवी छे. बारमा अधिकारमां कोईनी पण प्रेरणा विना कर्म केवी रीते भोगवी शकाय ! तेने माटे शीतळा, ओरी, अछबडा विगेरे व्याधिओनां दृष्टांतो आपी विषयनी सुंदर रीते पुष्टि करी छे. आ उपरांत कर्मना मांगा, कर्मनी सत्ता तेमज व्यवस्था विगेरे पण समजाव्यां छे. तेरमा अधिकारमा पुण्य नथी, पाप नथी, स्वर्ग नथी, विगेरे नास्तिकोना मतनो सुंदर रीते निरास करवामां आव्यो छे. चौदमा अधिकारमा एकला प्रत्यक्ष प्रमाणथी ज सार्थकता नथी ए मत दर्शावी परोक्षादि प्रमाणो पण मानवा जोइए तेनी उदाहरणोपूर्वक साबिती करवामां आवी छे. पंदरमा अधिकारमा स्वर्गादि जोवातां नथी छतां ते छ ज ते हकीकतनी दाखलाओ पुरस्सर सिद्धि करवामां आवी छे. सोळमा अधिकारमा स्वर्ग-मोक्षादि प्राप्त करवाना हेतु-साधन दर्शावी गृहस्थोने माटे निश्चय पर दृष्टि राखी व्यवहार साचवबानी साथोसाथ भाव धर्ममा आगळ वधवानी सूचना करवामां आवी छे. AAॐ
SR No.600374
Book TitleJain Tattva Saragranth Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani, Manvijay Gani
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1941
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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