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________________ धर्मपरीक्षा प्रकाशकीयं ॥ २ ॥ कूपिकाना रसनो झरो, मिध्यात्वरूप दुर्गमपर्वतो मेदवा माटे वज्र, पदार्थ तस्वविषयक सन्देह - विपरीतज्ञान-अज्ञानादि महान्धकारने तोडवामां सूर्य, मित्रादि यावत्परा पर्यन्तनी योगदृष्टिओ-अध्यात्मादि योग मेदो - प्रणिधानादि शुभाशयो- खेदोद्वेगादि दोषो - प्रीत्यादि अनुष्ठान मेदो अन्य रीतिए अमृतानुष्ठान पर्यन्तना भेदो - इच्छा-शास्त्र-सामर्थ्य योगादि-योगावंचकादि- इच्छायमा दि अनेकविध गहन तच्चोना उपनिषद् भाव बतावनार प्रकाशवंत दीपिकाओ, पूर्व श्रुतकेवलि भगवंतोनुं स्मरण करावनार अथाग प्रतिभावैभव" इत्यादि | तेमना वचननुं सत्य गौरव माहात्म्य प्रकाशकं ते सूर्यना झळहळता तेजने प्रकाशमां लाववा प्रयत्न करता खद्योतनो उद्यम के, समुद्रना | विशाल प्रमाणने बताववा प्रयास करता बालकनी बाहुप्रसारणा छे. उंचा नालीयेरी वृक्षनी टोचे रहेला श्रीफलने ग्रहण करवा इच्छा राखता जमीन उपर ऊमेला वामनने उंचा बाहु करवा तुल्य के. उपाध्यायजी भगवंतोना अनेक ग्रन्थो पैकी एकसो चार गाथात्मक धर्मपरीक्षा नामना आ लघु प्रकरण ग्रन्थनी गंभीरार्थता अने तेने लइने जिज्ञासु विशिष्ट व्युत्पत्तिशालि मुमुक्षु भव्यात्माओने पण तेना ऐदम्पर्यार्थनी दुर्गमता विगेरे अनेक साक्षात् परम्परा हेतुओने विचारी धर्म-तेनी परीक्षा अने तेनो अधिकारि कोण होड़ शके विगेरे इन्द्रियागम्य - अगोचर पदार्थों तेमज तेना विचारनी अन्तर्गत साक्षात् - पारम्परिक के आनुषङ्गिक आवता अनेक तवोमां भिन्नभिन्न विचारसरणि उपर चढता तर्कवादोथी उद्भवेला तथा उद्भवता केटलाक साम्प्रदायिक मतभेदोनुं निर्णयात्मक निवारण "अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये || आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ||१||" "आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च ॥ त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते तत्रमुत्तमम् ॥ १ ॥ " इत्यादि अनेक महर्षिओना वचनोथी निर्णीतज के के आगम अने सतर्क (युक्ति) करी शके छे, हृदयमां अबाधित कोतराएल अने आत्मानी साथे तद्रूप बनेल आ निर्मल पवित्र विचारणाथी संवादपणे ग्रहण निवेदनम् ॥ २ ॥
SR No.600371
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1942
Total Pages304
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size28 MB
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