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ओ.नि. :
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श्री सोधનિયુક્તિ | भाग-२
ओ.नि.भा. :
॥४१॥
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कागसियालक्खइयं दविअरसं सव्व एसो उ भवे अविही जहगहिरं भोयणंमि (भुंजओ य) विही ॥५९५॥ उच्चिणइ व विट्ठाओ कागाउ अहवावि विक्खिड़ सव्वं । विप्रोक्खइ व दिसाओ सियालो अन्नोन्नहिं गिण्हे ॥ २९६॥ सुरहीदोच्चंगट्ठा छोढूण दवं तु पियइ दवियरसं । हेट्ठोवरि आमटुं इय एसो भुंजणे अविही ॥२९७॥ जह गहिअं तह नीयं गहणविही भोयणे विही इणमो । उक्कोसमणुक्कोसं समीकयरसं तु भुंजिज्जा ॥२९८॥ तइएवि अविहिगहिअं विहिभुत्तं तं गुरूहिष्णुन्नायं । सेसा नाणुन्नाया गहणे दिते य निज्जुहणा ॥२९९॥
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