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________________ ।। श्रीआचाराङ्ग प्रदीपिका ॥ जन्म नाम था इनका धनराज । किंवदन्ति है की इनके माता-पिता वर्षों तक सन्तान हीन रहे । परिवार समुद्रसूरि के प्रति आस्थावान था। गुरु महाराजने नियम दिलवाया कि यदि सन्तान हो तो प्रथम बालक को दीक्षा दिलवाई जाय, तथैव हुआ भी । संस्कारशील बालक सहर्ष सं. १५३५ में संयम स्वीकार कर धनराज से धर्मरंग बने । आगमादि साहित्य के विशिष्ट अध्ययनानन्तर सं. १५५५ में अहमदाबाद में आचार्य पद प्रदान किया और सं. १५५६ में बीकानेरमें बडे समारोह के साथ शन्तिसागराचार्यने सूरिमन्त्र समर्पित किया । श्री प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ ३२, ४२ सं. १५२८ की पुष्पिका में जिनहंससूरि जिनमाणिक्यसूरि का नाम है, जो विचारणीय है। आगरा जाने पर इनके प्रति श्रध्धा रखने वाले श्रावकोने सम्राट के समान स्वागत किया। किसी विघ्नसन्तोषीने वहा के तात्कालिक लोदी शासक को उभारा कि वह मुनि तो वैभव और सम्पदा में आपकी समानता करता है इस बात पर इन्हें धवलपुर / धौलपुर में रक्षित किया । शासकने इनसे प्रार्थना की कि कोई चमत्कार बताओ । समता के सागर में सदैव निमज्जन करनेवाले योगी मुनि के लिए आध्यात्मिक साधना का प्रदर्शन वर्जित है। इससे लोक-सम्पर्क बढता है, क्रमशः प्रबुद्धसाधक पतन की ओर गतिमान होता है। आगमानुमोदित संयम और प्राण-प्रण से प्रत्येक मर्यादा का सावधानी के साथ पालन करने वाले आचार्य के समक्ष अकारण ही एक समस्या खड़ी हो गई। यह परीक्षणकाल था, आचार्यने शासक से निर्भीकता से कहा कि आध्यात्मिक जीवन में चमत्कारों का कोई मोल नहीं होता । साधना द्वारा ही सिध्धि प्राप्त करना हमारा जीवनलक्ष्य है। श्रमण-संस्कृति के मूलभूत सिध्धांतो के सतर्क प्रतिपादन से वह प्रसन्न हुआ और अपनी भूल समझ में आई । कष्ट के लिए क्षमा-याचना करते हुए साम्पत्तिक वैभव भेंट करना चाहा, परंतु अनाकांक्षी आचार्यने अस्वीकार करते हुए अन्य बन्दीजनोंकी मुक्ति चाही तथैव आज्ञा का पालन हुआ, अमारिपटह बजवाया। ॥१५।
SR No.600361
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorJinhansasuri
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1996
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_acharang
File Size15 MB
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