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________________ tort ॥२८४॥ कल्पसूत्र-वेलां अतिक्रमयितुं न कल्पते, तर्हि किं कुर्यादित्याह-आरामादिस्थितस्य साधोर्यदि वर्ष नोपरमति : नव सुबोधि तदा विकटं उद्गमादिशुद्धमशनादि भुक्त्वा पीत्वा च एगओ भंडगं कटुत्ति एकत्रायतं सुबद्धं भांडकं । M नो से कप्पइ पुवगहिए णं भत्तपाणे णं वेलं उवायणावित्तए, कप्पइ से पुवामेव वियडगं भुच्चा पिच्चा पडिग्गहगं संलिहिय संलिहिय संपमन्जिय संपमन्जिय एगओ भंडगं कट्ट सावसेसे सूरिए जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तए॥३६॥वासावासं पजोसवियस्स निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय निगिज्झिय बुट्टिकाए पात्रायुपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्षत्यपि मेघे सावसेसे सूरिएत्ति सावशेषे अनस्तमिते सूर्य है। * जेणेव उवस्सएत्ति यत्रोपाश्रयस्तत्रागंतुं कल्पते, परं न कल्पते तां रात्रिं वसतेबहिः उवायणावित्तएत्ति है। ॥२८४॥
SR No.600342
Book TitleKalpsutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay Gani
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1915
Total Pages622
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size39 MB
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