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________________ स्त० पं० ॥ ११७॥ आरे जिननामद एक करी ॥ देशविरतियेरे सतसद्वि दस बेठी करी ॥ यदि संघयणरे मनुजत्रिक बंधे नहीं ||| क्रोध मान माया लोन च्यारे अपच्चरकाणवरणा टब्या ॥ उदारिक तनु तसु उवंगद बंध नहीं एम सांजल्या ॥ त्रेसठ बंधे प्रमत्तठाणे पच्चरकाणावरणीया ॥ क्रोध मान माया लोज बंधन च्यारे उणी जालिया ॥ १२ ॥ चालती ॥ अप्रमतेरे प्रकृति अठ्ठावन जाएज्यो, जंगणसहिरे अथवा हिये आज्यो | तेतो एली परेरे त्रेतव्यी बह नीकली, दोय घालीरे व्याहारकद्विकस्युं मिली टक। शोक थिर अशुन अरति अजस असातावेदनी, एम गुणसहि दवे अठावन प्रकृति कहुं परे बंधनी ॥ देव आनो बंध गयो बट्टो पुरो सातमे, करे तो गणस हि नहींतरे बट्टे पूरो अन्न ईमे ॥ २३ ॥ चालती । दवे अट्ट मरे अब करण गुणठाण्यं, श्रेणी दोइरे उत्रसम खवगति जाण्यं ॥ जीवमंमेरे इस थानके जाग साते करे, पहेले जागेरे बंध अट्ठावन उच्चरे ॥ त्रुटक ॥ उच्चरे गीयथ्य बितिय च पण बट्टे उपन्न जाणिये, निद्रा डुगं नहु बंध निद्रा पयल दुन्नि वखाणिये ॥ सातमे जागे बहीस पयमी बंध दोत्रे त्रीसनो, प्रकृति बहे जाग रह्यो सुखो दिवरण तेहनो ॥ २४ ॥ स्त० पं० ॥११७॥
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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