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विनय दया नाव मछर जे रंधे । मनुष्यपणो एणीपरे लहे ॥ सराग संयम व्रत बार ॥ बाल
स्त०५० तप अकाम निरजरा लहे देव अवतार ॥ १६ ॥ नामकर्मह नामकर्मह सुनतणो बंध सरल अगपणे करे । अशुन एड विपरीत बंधे उच्चगोय गुण रागे मद रहित जिनादिक नक्ति संघे । नणे नणावे एदथी विपरीत नीचे थाय । जिनपूजा अंतरायथी हिंसादिक अंतराय ॥१७॥ इति वस्तु पंचकं । ढाल गीता बंदानी ॥चालतो॥ गुणथानकरे चनदतणी विगती कहो ॥ | आदि मिथ्यारे बीजो सासादन लहो ॥ मिश्र तीजोरे अविरति चौथो जाणिये ॥ देसविरतिरे || है पंचमगण वखाणीये ॥ त्रुटक ॥ प्रमत्त अप्रमत्त निवृति अनिवृति बादर सहम संपराश्यं ॥ उवसंतखीण मोहसयोगी अयोगी केवली धारयं ॥ जिण गणे जेटली प्रकृति बंधे कर्म उदय उदीरणा ॥ सत्ता सवे गुणगणे कहीशु आगमले विस्तर घणा ॥१७॥ चालती ॥ एकसो वीसरे प्रकृति सामान्ये बंध करे ॥ तसु नामजरे कहीशुं चतुर जे मन धरे ॥ नाण दंसणरे आवरणं ||
॥११६॥ पण नव कही ॥ वेदनी दोयरे मोहनी बवीसज सही ॥ त्रुटक ॥ नही समकित मिश्र मोहनी
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