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________________ ब्रह्मबा॥ वनी बा० I७२ DBADDanwar/DoosraeAAD/09/doas उपचार जोजोध्यानके, तजिमति फैन गहौ जिन मति बैन ऐन ताहित विमल नैन होत ब्रह्मग्यानके | | ॥३५॥ थिर चर देहधारी जेते है संसारी ताकी करम प्रकृति न्यारी न्यारी गति टेक है, वरन विकार | औ अकारहुतें न्यारे सब न्यारे न्यारे कर्मबंध फल व्यतिरेक है ॥ जनमते मरनतें चरनतें करन” | न्यारे न्यारे सब जीव अव्यतै अनेक है, परजै प्रवान सब दीसतुहै यानि आनि निदचै समान | ग्यान चेतनामैं एक है ॥ ३६ ॥ अव्यत स्वरूप कलधौत एक रूप जैसे कुंमल कटिक परि जेते | बहु रूप है, परजैकी हानि वृद्धि प्रव्य घटै वढे नाहि अपने स्वन्नाव लीने अचल स्वरूप है ॥ तैसैं | | जीवअव्य ताके ग्यान चेतनादि गुन नरनारकादि गति परजै निरूप है, घटेतें घटत नांहि वढेतें | | वढत नांहि असो अविनाशी ब्रह्म घटमें अनूप है॥ ३७॥ धरे बहु नेख 4 अलेखकीन लखी रेख | ज्ञानदृष्टि देख अनमेखमै लख्यौ परै, तजिकै नरम परब्रह्मको पिठान लेहु थापहीमैं जानकर हृदैमें | न क्युं धरै ॥ काहिकौं करत खेद बोम जम्बुद्धि नेद आपतुं अन्नेद ब्रह्म मुक्तितो सदा करै, जप तप ध्यान दान तीरथसनान व्रत बिन ब्रह्म को बिना कलु काज नां सरै ॥ ३० ॥ नयको निवास | BUDAEBDavRADESHBAGDAMBAVDewaserary ॥७२॥
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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