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वसौं ॥ तैसे ही अनादि विकार निराधा मुख्म आप तो अमोल मूलै कुमति कुनावसौं, मिटे तैं अग्यान घट प्रगटै परमग्यान पावै निरवान पद कर्म के मावसौं ॥ ३२ ॥ ढरत ढरत नीर ज्यौं ज्यों नीचे जात त्यौं त्यौं विमल स्वभाव मिटे जइहै मलीनता, कहुं ऊकजोर कहुं धारकी मरोर कहुं उठत हिलोर कहुं वृद्धि कहुं हीनता ॥ तैसें इह ब्रह्म पर्यो करम जरममांहि परम धरम बिन नइ बवि बीनता, जब म मेटै तब आपदी मैं आप नेटै विना तादि नेटै नांदि मिटै जवदी|नता ॥ ३३ ॥ नांदी कदै नांदी नांदी है कहै तो है ही सही नाही रू है ए दोउ स्यादवाद रूप है, व्योममें कुसुम जैसैं अस्ति नास्ति उनै रूप कैसे ठहरावे घनघटा मध्य धूपहै | ऐसें सप्त जंगी नय साधी सरवंग अंग वचन प्रसंग जाखी जिनमत नूप है, जानै स्यादवादी और | वादी जाने माने नांदि कल अलख रूपी ब्रह्मको स्वरूप है ॥ ३४ ॥ तनमैं तिहारै परमेसर वसत तूं तो तौलुं न निहारे जौलौं पमल अग्यानके, उगेहु विरोचनके लोचन खुलत नांदि कौशिक के बाल चाल पात्रे न विज्ञानके ॥ करि ग्यान अंजन निरंजन निजर यावे सुगुरु बतावे