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ब्रह्मवा
ब्र०वा
बनी
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मूरतिन सूरति गरूर तन ग्यानकी जदूरतसौं पूरत लही जिये। ऐसोहे अलख जौलौं श्रापमैं लखे न | | तोलों परके बताए कहो कैसो के पतीजिये, काहेकों करत वाद अनुनौंको पायो स्वाद गूंगे कैसो |||
गुम खाय चुप व्है रहीजियै ॥ श्ए ॥ टरत न टरै निज सत्ताको स्वन्नाव जीव परके विनावमें || कदापि काल नां मिले, जैसैं शुद्ध कंचन कुधातमें मिलत त निज गुन बांमि पर गुनमैं नही
जिले ॥ ज्युंही इह आतमा अलख अविनाशी ब्रह्म परकै मिलाप गति च्यारुमैं सदा रुलै, है। परजै प्रसंग नयौ नाना विधि रंग तोउ आतमा अन्नंग शुद्ध चेतनासौं नां टले ॥ ३० ॥ | गम गम गाम गाम धाम देवी देवहुकी करें शठ सेव पै न नेवर्कौं पावही, फूल फल | पाती तो धूप दीप वाती जोरै वझे उतपाती केते जीवकौं सतावही ॥ पहै सचेत 4 अचेत नूत प्रेत पूजै आपकौं न सूझे मूढ और नरमावही, घटमैं निकट परमातमा प्रगट देव ताकी करै सेव तेतो सबै फल पावही॥ ३१॥ मलै न मलाय जैसैं उपल अटलखंन्न जलके समीप गदौ | अपने सुनावसौं, पौनकै हिलोरे उठे जलमैं किलोल तातें मूलतोसो दीसे सो तो परके विना- !!
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